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[ यथासंख्य अलंकार ] यथासंख्य बर्नन किये वस्तु अनुक्रम संग। करि श्ररि मित्त विपत्ति को गंजन रंजन भंग ॥१४१ ॥ [ पर्याय अलंकार ] द्वै पर्याय अनेक को क्रम में प्राश्रय एक । फिरि क्रम ते जब एक को प्राश्रय धरै अनेक ॥ १४२ ॥ हुती तरलता चरन में भई मंदता भाइ । अंबुज तजि तिय बदनदुति चंदहि रही बनाइ ॥ १४३ ॥ [ परिवृत्ति अलंकार ] परिवृत्ती लीजै अधिक थे।गई कछु देह । अरि-इंदिरा-कटाच्छ यह इक सर डारे लेइ* ॥ १४४ ॥ [ परिसंख्या ] परिसंख्या इक थल बरजि दूजे थल ठहराइ । नेह हानि हिय में नहीं भई दीप में जाइ ॥ १४५ ॥ [विकरुप] है बिकल्प यह कै बहै इहि बिधि को बिरतंत । करिहै को अंत अब जम, कै प्यारो कंत ॥ १४६ ॥ [समुच्चय ] दोइ समुच्चय भाव बहु कहु इक उपजे संग। एक काज चा कसा ह अनेक इक अंग ॥ १४७ ॥
- पाठा० तिय एक बात दै लेइ । (प्र० ख )