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सीतकिरन दे दरस तूं प्रथषा तियमुख प्राहि । जाउ, दई मा जनम दे चले देस तुम जाहि ॥ १० ॥ [विरोधाभास ] भासै जबै बिरोध सो यहै बिरोधाभास। उत रत हो उतरत नहीं मन तें प्राननिवास ॥ १०६ ॥ [विभावना] होहिं भांति विभाधना कारन बिनहीं काजु । बिनु जाधक दीनै चरन परुन लखें हैं प्राजु ॥ ११० ॥ हेतु पपूरन ते जबै कारज पूरन होइ । कुसुमषान कर गहि मदन सब जग जीत्या जोह ॥ १११ ॥ प्रतिबंधक के होता कारज पूरन मानि । निसि दिन श्रुति-संगति तऊ नैन राग की खानि ॥ ११२ ॥ जबै प्रकारन बस्तु तें कारज प्रकटहि होत। कोकिल की बानी प्रबै बोलत सुन्यो कपोत ॥ ११३ ॥ काहू कारन ते जबै कारज होत विरुद्ध । करत माहि संताप ही सखी सीतकर सुद्ध ॥ ११ ॥ पुनि कछु कारज ते जबै उपजै कारन रूप। नैन-मीन ते देखियत सरिता बहति अनूप ॥ ११५ ॥ [विशेषोक्ति ] विशेषाक्ति जो हेतु से कारज उपजै नाहिं । नेह घटत है नहिं तऊ काम-दीप घट माहिं ॥ ११६ ॥ ॥