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( १२ ) धरत 2 कहियै कारज देखि कछु भनौ बुरौ फल भाउ । दाता सौम्य सुअंक-बिनु पूरनचंद बनाउ ॥ ८६ ॥ देखो सहजै ए खंजन-लीला नैन तजस्त्री से निबल बल महादेव अरु मैन ॥१०॥ [ व्यतिरेक ] अतिरेक जु उपमान ते उपमेयाधिक देखि । मुख है अंबुज में सखी मीठी बात बिसेखि ॥ ११ ॥ [ सहोक्ति] सो महोक्ति सब साथही बरनै रस सरसाइ । कीरति प्ररिकुन्त संगहीं जलनिधि पहुँची जाइ ॥ १२ ॥ [विनोक्ति ] है पिनाक्ति द्वै भांति की प्रस्तुत कछु बिनु छीन । अरु मेाभा अधिकी ल है प्रस्तुत कछु इक हीन ॥ १३ ॥ दूग खंतन मे कंज मे अंजन बिनु सेभि न । बाला सब गुन सरस तन* रंच रुखाई है न ॥१४॥ [ समासोक्ति] समासेाक्ति प्रस्तुत फुरैऽप्रस्तुत बनन माझा । कुमुदिनहूँ प्रफुलित भई देखि कलानिधि माझ ॥ १५ ॥

  • पाठा० बलि सब गुन सरसाति है ( प्रति० ख ) ।

+ पाठा० समासोक्ति अप्रस्तुत जु फुरै जु प्रस्तुत मांझ (प्रति क )