. . [ उद्दीपन, बालंबन, विभाव, अनुभाव ] जो रस की दीपति करै उद्दीपन है सोइ । सो अनुभाष जु ऊपजै रस को अनुभव होइ ॥ ३८ ॥ श्रालंबन ग्रालंबि रस जामैं रहै बनाउ । नौहू रस मैं संचरै ते व्यभिचारी भाउ ॥ ३९ ॥ [ तेतीस व्यभिचारी भाव] निवेदौ, संका, गरब, चिंता, मोह, विषाद । दैन्य, असूया, मृत्यु, मद, पालस, सम, उन्माद ॥ १० ॥ प्राकृति-गोपन, चपलता, अपसमार, भय, ग्लानि । व्रीडा, जड़ता, हर्ष, धृति, मति, मावेग पखानि ॥ ४१ ॥ उत्कंठा, निद्रा, स्वपन, बोध, उग्रता भाय । व्याधि, अमर्ष, वितर्क, स्मृति ये तैंतीस गनाय ॥ ४२ ॥ [ उपमा अलंकार ] उपमेयर उपमान जहँ बाचक धर्म सुचारि । पूरन-उपमा, हीन तहँ लुप्तोपमा विचारि॥४३॥ इहि विधि सब समता मिलै उपमा सेाई जानि । ससि से उजल तियवदन, पल्लव से मृदु पानि ॥४४॥
- प्रलंकार सामान्य अरु कहैं विसिष्ट प्रकार ।
सब्द अर्थ त जानियें दोउन के व्यवहार ॥ ४३ ॥ पंथ बढ़े सामान्य तें राजभूमि परसंग। तातें कछु संक्षेप तें कहि विषिष्ट के अंग ।। ४४ ॥ ये दो दोहे प्रति ख में अधिक हैं। .