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ous. देने का श्रादर्श भी पंथकार को संस्कृत के लक्षण ग्रंथों तथा विशेष कर चन्द्रालोक ही से प्राप्त हुआ ४ --कवि परिचय जसवन्तसिंह महाराज गजसिंह के द्वितीय पुत्र थे और सं० १६६४ में बंदो में इन्हें अपने पिता की मृत्यु का समाचार मिला । ये वहाँ से दिल्ली गए और शाहजहाँ ने अपने हाथ से इन्हें टीका देकर चारहजारी मंसव पर नियुक्त किया। पहली बार दाराशिकोह के साथ और दूसरी बार औरंगजेब के साथ ये कंधार विजय करने गए थे पर ये दोनों चढ़ाइयाँ

  • कुछ सज्जनों का कथन है कि मारवाड़नरेश महाराज जसवंतसिंह ने

वास्तव में इस ग्रंथ को कविवर विहारीलाल से अपने नाम पर घनवा लिया था। उदाहरण में वे भाषाभूषण का यह दोहा भी पेश करते हैं, जिसका भाव विहारी- लाल के दोहे से मिलता है. रागी सन मिलि स्याम लो भयो न गहिरो लाल । यह अचरज उज्जल भयो तज्या मैल दिदि काल ॥ ( भाषाभूषगा) या अनुरागो चित्त की गति समुझे नहिं कोइ । ज्यों ज्यों बूढ़े श्यामरँग त्यों त्यों उज्जल होइ ।। (विवारी सतसई) ये दोनों ही दोहे एक कवि की रचना नहीं हैं क्योंकि एक ही भाव की दो दोहे में शब्दों का जरा हेर फेर करके कहने का सुकवियों का स्वभाव नहीं होता। या कह सकते हैं कि एक कवि ने दूसरे का भाव अपहरण किया है। ये दोनों ही समकालीन थे, अतः एक ही भाव को दोनों ने दो ढंग से कहा है महाराज जसवंतसिंह के विशद परिचय के लिए इस ग्रंथ के संपादक का लिखा 'यशवंतसिंह तथा स्वातन्त्र्ययुद्ध' देखिये ।