( ३ ) का 6 . (१) उपादान-शुद्धा-प्रयोजन-लक्षणा -जब किसी अन्य गुण आरोप हो धर्थात् जब मुख्यार्थ के साथ साथ अन्य अर्थ भी लक्षित हो। जैसे, सभी कहते हैं कि 'बाण चलता है' पर बिना मनुष्य द्वारा प्रेरित हुए जब बाण किस प्रकार चल सकते हैं । इस असंगति को मिटाने के लिए मनुष्य द्वारा प्रेरित किया हुश्रा ' की कल्पना करना पड़ता है पर बाण का चलना, जो मुख्यार्थ है, वह भी अपेक्षित है। ( २ ) लक्षण शुद्धा-प्रयोजन-लक्षणा -जब मुख्यार्थ का बिल्कुल त्याग कर दिया जाता है । जैसे, 'गंगा तट घोसनि सबै. गंगा-घोस कहंत ।' गंगा जी के तट पर बनी हुई गोशाला को सभी गंगा पर की गोशाला कहते हैं पर गंगा जी पर किसी गोशाला का निर्मित होना कल्पना के परे है इसलिए लक्षणा से उम गोशाला का तटस्थ होना कहिपत करना पड़ा साथ ही इस प्रकार लिखने का यह प्रयोजन था कि किनारा बहुत दूर तक कहा जा सकता है और गोशाला को बिल्कुल जल के पास बना हुआ कहना ध्येय था इसलिए उसे नदी पर बना हुअा कह डाला । इसीलिए कल्पना के भी सप्रयोजन होने से प्रयोजन लक्षणा हुई। ( ३ ) सारोप-शुद्धा-प्रयोजन-लक्षणा जब केवल कुछ समता हो के कारण मुख्यार्थ को छोड़कर अन्य अर्थ का श्रारोप किया जाता है। जैसे, बाँके तरे ये बर खंजर को प्रोप। यहाँ 'ये नयन के लिए न होकर बक्षण से कटाक्षों के लिए पाया है। 'बोके नयन' से भी उपादान से यही अर्थ लक्षित है। इस प्रकार नेत्रों में कटाचस्व का प्रारोप किया गया ( ४ ) साध्यवसाना-शुद्धा प्रयोजन बक्षणा - जब समता ( एक शब्द को लक्षणा-शक्ति और दूसरे की अभिधा शक्ति से उबुद्ध अर्थों से ) रहते हुए भी दो में से एक अर्थात् विषय या उपमेय न दिया गया हो । जैसे प्राजु मोहिं प्यायो सुधा धनि तो सम को श्राहि ? नायक नायिका से कह रहा है कि तू धन्य है, तुझसा कौन है ? तूने नयन, ,
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