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हाव
दोहा
नारिन के संभोग ते, होत बिबिध बिधि भाव।
तिनमें भरतादिक सुकवि, बरनत है दस हाव॥
शब्दार्थ—बिबिध बिधि—अनेक तरह के।
भावार्थ—स्त्रियों में संयोगवश जो अनेक प्रकार के भाव पैदा होते हैं, उनमें से भरतादि आचार्यों ने दस का वर्णन किया है। ये दस हाव कहलाते हैं।
छप्पय
पहिलै लीला हाव, बहुरि सुबिलास बरनिये।
ताते कउ बिछित्ति, बहुरि विभ्रम कहि गनिये॥
किलकिंचित तब कह्यौ, तबै मौटाइतु मानहु।
तातें कहु कुटमित्त, बहुरि बिब्बोकहु जानहु॥
कविदेव कहे फिर ललित कहु, ताते बिहित कहे सरस।
इहि भाँति बिबिध बिधि बिबुधवर, बरनत कबिवर हाव दस॥
भावार्थ—लीला, विलास, विच्छित्ति, विभ्रम, किलकिंचित, मोट्टायित, कुट्टमित, बिब्बोक, ललित और विहित इन दस हावों का कवियों ने वर्णन किया है।
१—लीला
दोहा
कौतुक तें पिय की करै, भूषन भेष उन्हार।
प्रीतम सों परिहास जँह, लीला लेउ विचारि॥