निवेदन
सन्तोष की बात है कि इधर कई वर्षों से हिन्दी की प्राचीन कविता के पठन-पाठन की ओर हिन्दी-पाठकों की रुचि बढ़ रही है। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ साहित्य-प्रेमी अब भी ऐसे हैं, जो प्राचीन कविता पर अश्लीलता इत्यादि् का लाञ्छन लगाकर उसकी ओर से नाक-भौं सिकोडते रहते हैं; परन्तु इनकी संख्या अब दिन पर दिन कम ही होती जाती है। लोग प्राचीन कवियों के काव्यसौन्दर्य और रचना-कौशल को समझने लगे हैं। कहना नहीं होगा कि पहले पहल हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन ने ही अपनी ऊँची साहित्यिक परीक्षाएं प्रचलित कर के प्राचीन साहित्य के अध्ययन की ओर हिन्दी जनता का ध्यान आकर्षित किया; और अब तो भारत के कई सरकारी शिक्षाविभागों और अन्य कई सरकारी तथा और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं ने साहित्य की परीक्षाएं प्रचलित की हैं। इन सब संस्थानों के परीक्षार्थियों को इस प्रकार के काव्यशास्त्र के ग्रन्थों के अध्ययन की आवश्यकता पड़ती है। उनकी सुविधा के लिए साहित्यरत्न पंडित लक्ष्मीनिधि चतुर्वेदी का यह प्रयत्न अत्यन्त प्रशंसनीय है। "भावविलास" का कोई भी सुसम्पादित संस्करण अभी तक हमारे देखने में नहीं आया था। चतुर्वेदी जी ने इस ग्रन्थ का सम्पादन करके इस त्रुटि को कई अंशों में दूर कर दिया है। पं॰ लचमीनिधि जी महाकवि देव के ही प्रान्त के निवासी हैं; और माथुर होने के कारण आप की मातृभाषा भी ब्रजभाषा ही है। अतएव ब्रजभाषा से आप का स्वाभाविक प्रेम है, जो आप को मातृस्तन्य के साथ मिला है। ऐसे होनहार साहित्यप्रेमी नवयुवकों की इस ओर सुरुचि होना सचमुच ही अभिनन्दनीय है। हमें विश्वास है कि प्राचीन साहित्य के प्रेमी और प्रचारक सज्जन इस ग्रन्थ का समुचित समादर करके चतुर्वेदी जी का उत्साह बढ़ावेंगे।
लक्ष्मीधर वाजपेयी