उदाहरण पहला (विप्रतिपत्ति)
सवैया
यह तौ कछूभामिती कोसौ लसै, मुख देखत ही दुख जात है ह्वै।
सफरी-मद-मोवन लोचन ये, परिहै कहुँ मानों चित्तौत ही च्वै॥
कवि देव कहै कहिए जुग जो, जल जात रहे जलजाल में ध्वै।
न सुने तयौ काहू कहूँ कबहूँ, कि मयङ्क के अङ्क में पङ्कज द्वै॥
शब्दार्थ—सफरी—मछली। मद मोचन—गर्व तोठने वाले। मयङ्क—चन्द्रमा। पङ्कज—कमल।
उदाहरण दूसरा (विचार)
सवैया
काम कमान ते बान उतारि है, 'देव' नहीं मधु माधव रेहै।
कोकिलऊ कल कोमल बोल, बिसारि के आपु अलोप कहै है॥
मोहि महादुख दै सजनी, रजनीकर और रजनी घटि जैहै।
प्रान पियारे तु ऐहै घरै, पर प्रान पयान कै फेरि न एहै॥
शब्दार्थ—काम.........उतारि है—कामदेव अपने धनुष से वाण उतार लेंगे। मधु—चैतमास। कोकिलऊ.....कोमल बोल—कोयल भी अपने मीठे वचन बोलना छोड़ देगी। अलोप कहे है—गायब हो जायगी। रजनीकर—चन्द्रमा। रजनी—रात्रि। घरै—घर। पर......एहै—परन्तु प्राण जाकर फिर नहीं लौटेंगे।
उदाहरण तीसरा (संशय)
सवैया
यह कैधों कलाधर ही की कला, अबला किधौं काम की कैधों सची।
किधौं कौन के भौन की दीप सिखा, सखी कौन के भाग ह्वै भालखची।