२५—अवहित्थ
दोहा
लज्जा गोरव धृष्टता, गोपै आकृति कर्म्म।
और कहै औरे करै सु, अवहित्थ कौ धर्म॥
शब्दार्थ—और कहे औरै करे—कहे कुछ और तथा करे कुछ और
भावार्थ—अपनी लज्जा तथा मानादि को छिपाने के लिए अपने किए हुए कार्य को चतुरतापूर्वक; कुछ का कुछ कहकर छिपाना अवहित्थ कहलाता है।
उदाहरण
सवैया
देखन को बन को निकसीं, बनिता बहु बानि बनाइ कै बागे।
देव कहैं दुरि दौरि के मोहन, आय गये उत तें अनुरागे॥
बाल की छाती छुई छल सो, घन कुंजन मैं बस पुंजन पागे।
पीछे निहारि निहारत नारिन, हार हियेके सुधारन लागे॥
शब्दार्थ—बनिता—स्त्रियां। बहु...बनाइकै—बहुत तरह के शृंगार करके। बागे—बागमें। दुरि—छिपकर। उततें—उधरसे। अनुरागे—प्रेम में सनेहुए। घनकुजंन में—घनी-कुंजों में। पीछे...लागे—पीछे जब देखा कि सखियां देख रही है तब गले का हार संभालने लगे।
२६—मति
दोहा
शास्त्र चिंतना ते जहां, होइ यथारथ ज्ञान।
करैं शिष्य उपदेश जहँ, मति कहि ताहि बखान॥