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भाव-विलास


शब्दार्थ—उत्तालता—उतावली, अस्थिरता।

भवार्थ—अस्तुत्य, क्रोधादि के कारण, स्थिरता का न रहना चपलता कहलाता है।

उदाहरण
सवैया

खेलत मैं वृषभानु सुता, कहुँ जाइ धँसी बन कुंजन मैं ह्वै।
डार सों हार तहाँ उरभयौ, सुरझाय रही कविदेव सखी द्वै॥
तौ लगि आप गयो उतते, सु नगीच मनो चित बीच परे छूवै।
छोहरवा हरवा हरवाइ दै, छोरि दियो छल सों छतिया छूवै॥

शब्दार्थ—वृष-भानु—सुता-राधा। जाइ धँसी—जा घुसी। डार...उरभयौ—वहाँ डाल में हार उलझ गया। सुरझाय रही—सुलझाने लगी। तौलगि—तब तक। उततें—उधर से। नगीच—पास, निकट। छोहरवा—छोहरा।

१५—हर्ष
दोहा

प्रिय दर्शन श्रवनादि ते, होय जु हिये प्रसाद।
बेग, स्वेद, आँसू, प्रलय, हर्ष लखौ निरबाद॥

शब्दार्थ—प्रसाद—आनन्द।

भावार्थ—अपने प्रिय के दर्शन अथवा उसके बारे में सुनने से हृदय में जो आनन्द उठता है, उसे हर्ष कहते हैं। इस हर्ष के कारण पसीना, आँसू आदि चिन्ह दिखलायी पड़ते हैं।