भावार्थ—अपने प्रिय के दर्शन, स्मरण, अथवा श्रवण से तन्मय होकर शरीर की चेष्टा के रुक जाने को प्रलय कहते है।
उदाहरण
सवैया
गोरी गुमान भरी गज गामिनि, कालि धौं को वह कामिनि तेरे।
आई जु ती सुचितें मुसक्याइ के, मोहि लई मनमोहन मेरे॥
हाथन पाँय हलें न चलें अँग, नीरज नैन फिरैं नहिं फेरे।
देव सुठौर ही ठाड़ी चितौति, लिखी मनु चित्र विचित्र चितेरे॥
शब्दार्थ—गुमान भरी—गर्वीली। गज-गामिन—हाथी की तरह चाल चलनेवाली। चितौति—देखती है। लिखी......चितेरे—मानो किसी कुशल चित्रकार ने चित्र में लिख दिया हो।
आंतर सञ्चारी भाव
दोहा
सात्विक होत शरीर ते, ताही तें सारीर।
अन्तर उपजै आंतरिक, ते तेंतिस कहि धीर॥
शब्दार्थ—उपजै—उत्पन्न होते हैं।
भावार्थ—सात्तविक भाव शरीर से उत्पन्न होते हैं, इसलिए शारीरिक कहलाते हैं और आन्तर मन से पैदा होते हैं अतः आंतरिक कहे जाते हैं; ये तेंतीस तरह के होते हैं।
छप्पय
प्रथम होय निर्वेद ग्लानि संका सुयाकउ।
मद अरु श्रम आलस्य, दीनता चिंता बरनउ॥