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भाव-विलास

 

कविदेव अचानक चौंक परी, सुनि तें, बलि वा छतियाँ उमही॥
तब लौं पिय आँगन आइ गये, धन धाय हिये लपटाय रही।
अँसुवा ठहरात गरौ घहरात, मरू करि आधिक बात कही॥

शब्दार्थ—आली—सखी। अचानक—यकायक, अकस्मात। छतियाँ उमही—हृदय भर आया। धाय—दौड़ कर। घहरात—घरघराता है। मरू करि—मुश्किल से, कठिनता से। आधिक—आयी।

६—बिवरनता
दोहा

भय, बिमोह अरु कोप तें, लाज सीत अरु घाम।
मुख दुति औरैं देखिये, सो बिबरनता नाम॥

शब्दार्थ—कोप—क्रोध। सीत—शीत। धाम—धूप।

भावार्थ—भय, मोह, क्रोध, लज्जा, शीत तथा घामादि के कारण मुख अथवा शरीर की कान्ति के बदल जाने को बिवरनता कहते हैं

उदाहरण
सवैया

सुन्दरि सोवति मन्दिर मैं, कहूं सापने मैं निरख्यो नँदु नन्द सौ।
त्यों पुलक्यौ जल सों झलक्यौ उर, औचक ही उचकौ कुचकंद सौ॥
तौ लगि चौंक परी कहि देव, सुजानि परौ अभिलाष अमन्द सौ।
आलिन को मुख देखत हीं, मुख भावती को भयो भोर कौ चन्दसौ॥

शब्दार्थ—मन्दिर—गृह, घर। सापने—सपने में। निरख्यो—देखा। पुलक्यौ—पुलकित हुआ। उर—हृदय। औचक—यकायक। भोर के चन्द सौ—सबेरे के चन्द्रमा के समान अर्थात् फीका, निस्तेज।