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विभाव

 

दोहा

निज निज के संजोग तैं, रस जिय उपजतु होइ।
औरौं विविध विभाव बहु, बरनैं कवि सब कोइ॥

शब्दार्थ—निज निज—अपने अपने। जिय—हृदय में। विविध—बहुत तरह के, अनेक प्राकर के।

भावार्थ—अपने-अपने संयोगों के कारण हृदय में भिन्न भिन्न रसों की उत्पत्ति होती है अतः उनके अनुसार कवि लोगों ने विभागों के और भी बहुत से भेद बतलाये हैं।

उदाहरण
सवैया

सुनि के धुनि चातक मोरनि की, चहुँओरनि कोकिल कूकनि सों।
अनुराग भरे हरि बागन में, सखि रागतराग अचूकनि सों॥
कविदेव घटा उनई जुनई, बन भूमि भई दल टूकनि सों।
रंगराती हरी हहराती लता, झुकि जाती समीर की झूकनि सों॥

शब्दार्थ—अनुराग भरे—प्रेम में भरे हुए। अचूकनि सों—बिना चूके। घटा—बादल। उनई—उठी। हहराती—हिलती। समीर—हवा। झूकनि—झोंका।