देव कहै मधुरी धुनि सौं, परवीन ललै कर बीन बजावनि।
बावरी सी हौं भई सुनि आजु, गई गड़ि जी मैं गुपाल की गावनि॥
शब्दार्थ—आली—सखि। अलापि—गाकर। मूरतिवन्त—प्रत्यक्ष। मनोज—कामदेव। पंचम नाद, निखाद (निपाद)—स्वरों के भेद। सुर—स्वर। मूरछना—मूर्छना—जो दो स्वरों के बीच में बोली जाय। ग्राम—स्वरों का एक भेद। मधुरी—सुन्दर, मीठी। धुनि—ध्वनि, आवाज़। बावरी सी—पागल सी, उन्मत्त सी। बीन—वाद्य विशेष। गई गडि—चुभ गयी। जी मैं—मन में, दिल में। गावनि—गीत, गाना।
उदाहरण दूसरा—(नृत्य)
सवैया
पीरी पिछौरी के छोर छुटे, छहरै छबि मोर पखान की जामैं।
गोधन की गति बैनु बजैं, कविदेव सबै सुनि के धुनि आमै॥
लाज तजी गृह काज तजे, मन मोहि रही सिगरी बृज बामै।
कालिंदी कूल कदम्ब के कुंज, करैं तम तोम तमासौ सो तामै॥
शब्दार्थ—पीरी—पीली। छहरै—शोभा देती है। जामैं—जिसमें। धुनि—ध्वनि। आमैं—आते हैं। तजी—छोड़ी। सिगरी—सब। बृजबामैं—बृज की स्त्रियाँ। कालिंदी—यमुना। कूल—किनारा। तमतोम—घना अन्धकार। तमासो—तमाशा। सो—समान। तामैं—उसमें।
उदाहरण तीसरा—(उपवन-गवन)
सवैया
बाग चली वृषभान लली सुनि, कुंजनि मैं पिकपुञ्ज पुकारनि।
तैसिय नूतन नूत लतान मैं, गुञ्जत भौंर भरे मधु भारनि॥