यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१५३
अलंकार

 

१६–१७—आक्षेप और उदात्त
दोहा

करत कहत कछु फेर सौ, बर्जन बच आक्षेप।
उदात्त मैं अति बरनिये, सम्पति दुति अवलेप॥

शब्दार्थ—फेर सौ—हेर फेर से।

भावार्थ—जो बात कहनी हो उसे विशेष जोर देने के लिए हेर फेर के साथ, ऊपर से मना करते हुए वर्णन करना आक्षेप कहलाता है और जहाँ असम्भव धनादि का वर्णन हो वहाँ उदात्त अलंकार होता है।

उदाहरण (आक्षेप)
कवित्त

नूतन गुलाल नूत मञ्जरी की मालनि सों,
कोजे गजमुख सन मुख सनमान कौ।
करिहै सकल सुख विमुख बियोग दुःख,
जानियो न न्यारे ये हमारे पिय प्रान कौ॥
बाये बोलैं मोर पिक सोर कर सामुहे हूँ,
दाहिने सुनोजू मत्त मधुकर गान को।
सगुन भले हैं चलिवे को जो पै चलो चितु,
आवतु बसन्त फन्त करिये पयान को॥

शब्दार्थ—बायें—बायी ओर। सामुहे—सामने। सगुन—शकुन। —कन्त-पति।