शब्दार्थ—लोइ–लोग।
शब्दार्थ—विदग्धा के पुनः दो भेद और होते हैं। वाक्विदग्धा और क्रिया विदग्धा।
(ख) विदग्धा (वाक)
सवैया
ब्याह की बोधि बुलाये गये सब, लोगनु लागि गये दिन दूने।
'देव' तुम्हारी सौ बैठी अकेलिये, हौं अपने उर आनति ऊने॥
क्यों तिन्हे बासर बीतत बीर, बनाये है जे विधि बन्धु बिहूने।
कौन घरी घर के घर आवे, लगैं घर घोर घरीक के सूने॥
शब्दार्थ—अकेलिये–अकेलीही। हौं–मैं। बासर–दिन। वन्धुबिहूने– बन्धुरहित। सूने–शून्य।
विदग्धा (क्रिया)
सवैया
बृसुरी सुनि देखन दौरि चली, जमुना जल के मिस बेग तवै।
'कविदेव' सखी के सकोचन सो, करि ऊठ सु औसर को बितबै॥
वृषभान कुमारि मुरारि की ओर, बिलोचन कोरनि सो चितवै।
चलिवे को घरै न करै मन नैक, घड़ै फिर फेरि भरै रितबै॥
शब्दार्थ—जमुना जल के मिस–जमुना से पानी लाने के बहाने। करि उठ–बहाना करके। बितवै–बिताती है। बिलोचन कोरनि–ऑखों की कोर। चितवै–देखती है। बड़े...रितवै–घड़े को बार बार भरती और खाली करती है।