सवैया
खेलत फाग खिलार खरे, अनुराग भरे बड़ भाग कन्हाई।
एक ही भौन में दोउन देखि के, देव करी इक चातुरताई॥
लाल गुलाल सो लोनी मुठी भरि, बाल के भाल की ओर चलाई।
वा दृग मूंदि उतै चितयौ, इन भेटो इतै वृषभान की जाई॥
शब्दार्थ—खिलार–खेलनेवाले। भौन–भवन, घर। चातुरताई–चालाकी। उतै–उधर। भेंटी–आलिंगन किया। वृषभान की जाई–राधा।
परकीया वर्णन
दोहा
जाकी गति उपपनि सदा, पति सों रति गति नांहि।
लो परकीया जानिये, ढकी प्रीति जग मांहि॥
ताहि परौढ़ा कन्यका, द्वै विधि कहत प्रवीन।
गुपित चेष्टा परौढ़ा, कन्या पितु आधीन॥
शब्दार्थ—सरल है।
भावार्थ—जो स्त्री अपने पति से किसी कारण वश प्रेम न कर अन्य पुरुष से गुप्त प्रेम करती है, उसे परकीया कहते हैं। इसके दो भेद होते हैं। प्रौढ़ा और कन्यका।
१–प्रौढ़ा
सवैया
मोहन मोहि न जान्यो यहाँ बलि, बाल को बोल सुनायो नजीकतें।
चौंकि परी चहुँओर चितै, गुरु लोगन देखि उठी नहिं ठीकतें॥