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भाव-विलास

 

२–प्रौढ़ा मध्यमा
सवैया

सूधिये बात सुनों समुझो अरु, सूधी कहो करि सूधौ सबै संग।
ऐसी न काहू के चातुरता चित, जो चितवै 'कविदेव' ददै अंग॥
वोही के लैये बलाइ ल्यो बालम, हौ तुम्हे नीको बतावति हौ ढंग।
प्यारौ लगे यह जाको सनेह, महाउर बीच महाउर को रंग॥

शब्दार्थ—सूधी–सीधी, सरल।

३–प्रौढ़ा अधीरा
सवैया

पीक भरीं पलकैं झलकैं अलकैं, जुगड़ी सुलसैं भुज खोज की।
छाइ रही छवि छैल की छाती मैं, छाप बनी कहूं ओछे उरोज की॥
ताही चितौति बड़ी अँखियान ते, तीकी चितौनि चली अति ओज की।
बालम ओर बिलोकि के बाल, दई मनों खैंचि सनाल सरोज की॥

शब्दार्थ—पीक–पान की पीक। छाप बनी–छाप लग गयी। ओछे-छोटे।

दोहा

मध्या प्रौढ़ा दोय विधि, ज्येष्ठा और कनिष्ट।
अधिक नून पिय प्यार करि, बरनत ज्ञान गरिष्ट॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—मध्या प्रौढ़ा के दो भेद होते हैं। ज्येष्ठा और कनिष्ठा। जिसको पति अधिक प्यार करे वह ज्येष्ठा और जिसे कम प्यार करे वह कनिष्ठा कहलाती है।