प्रौढ़ा सुरतान्त
कवित्त
आगे धरि अधर पयोधर सधर जानि,
जोरावर जंघन सघन लरै लचिके।
बार बार देति बकसीस जैतिवारनि को,
बारनि को बाँधे जौ पिछार से सुबचिके॥
उरुन दुकूल दै उरोजनि को फूलमनि,
ओठनि उठाए पान खाइ खाइ पचिके।
देव कहे आजु मानो जीतो है अनङ्गरिपु,
पीके संग संग रस सुरत रङ्ग रचिके॥
शब्दार्थ—अधर–ओष्ठ। पयोधर–कुच। जोरावर–सुदृढ़। जंघन–जाँघें। जैतिवारनि–जीतनेवाले। बारनि–बाल। उरून–जंघाएं। दुकूल–वस्त्र। अनङ्ग–कामदेव। रिपु–बैरी।
मध्या प्रौढ़ा मान
दोहा
मध्या औ प्रौढ़ा दुओ, होंहि बिविध करि मानु।
धीरा अरु मध्यम कह्यो, औरु अधीरो जानु॥
वक्र युक्ति पति सो कहै, मध्या धीरा नारि।
मध्या देहि उराहनो, वचन अधीरा गारि॥
भावार्थ—मध्या और प्रौढ़ा इन दोनों के धीरा, मध्यमा और अधीरा ये तीन तीन भेद और होते हैं। व्यंग वचन कहने वाली मध्या, धीरा, उलाहना देनेवाली मध्यमा और क्रोधपूर्वक भर्त्त्सना करने वाली अधीरा होती है।