ग्रन्थ-परिचय
छप्पय
श्री वृन्दावन-चन्द चरणजुग, चरचि चित्त धरि।
दलमलि कलिमल सकल, कलुष दुख दोष मोष करि॥
गौरी-सुत गौरीस गौरि, गुरु-जन-गुण गाये।
भुवन-मात भारती सुमिरि, भरतादिक ध्याये॥
कवि देवदत्त शृङ्गार रस, सकल-भाव-संयुक्त सँच्यो।
सब नायकादि-नायक सहित, अलंकार-वर्णन रच्यो॥
शब्दार्थ—श्रीवृन्दावन-चन्द—श्रीकृष्ण। चरचि—पूजाकरके। दलमलि—नष्ट करके। कलिमल—कलियुग के दोष। कलुष—पाप। मोष करिनाश करके। गौरीसुत—श्रीगणेश। गौरीस—महादेव। गौरि—पार्वती। भुवनमात—संसार की माता, जगज्जननी। भारती—सरस्वती। भरतादिक—भरत आदि आचार्य। संयुत—सहित। सँच्यों—संचित किया। रच्यो—बनाया।
भाव
दोहा
अरथ धर्म तें होइ अरु, काम अरथ तें जानु।
तातें सुख, सुख को सदा, रस शृङ्गार निदानु॥
ताके कारण भाव हैं, तिनको करत विचार।
जिनहिं जानि जान्यो परै, सुखदायक शृंगार॥
शब्दार्थ—ते—से। अरु और, तथा। तातें—इसलिए। निदानु—