रोमिनदुनिया) का सिद्धान्त भी इस्लाम में भारत से गया---क्योंकि मुहम्मद साहब तो इसके विरुद्ध थे।
प्राचीन मुल्ला मौलवी और सूफ़ियों में परस्पर विरोध बराबर चला आता रहा है। फिर भी लाखों मनुष्य इन सूफियों के ख़ानक़ाहों में जमा होते थे और उनके विचारों का उन पर भारी प्रभाव पड़ता था।
मंसूर एक प्रसिद्ध सूफी फ़कीर था और वह भारत में कुछ दिन रहा था। उसका मुख्य सिद्धान्त 'अनल हक़' अर्थात् 'सोऽहं' था। यह आदमी अपने विचारों ही के कारण सन् ९२२ में अनेक यातनाओं के बाद सूली पर चढ़ा दिया गया। वह सबको खुदा मानता था और दुई को धोखा समझता था। इस्लाम में इस भाँति के प्रचारकों ने इस्लाम की भावना में दूसरे मत वालों के लिए एकता, उदारता और प्रेम के बीज बो दिए थे। यही कारण था कि इन साधुओं का भारत की जनता पर बहुत उत्तम प्रभाव पड़ा था। ये लोग सत्संग करते, भक्ति रस के गीत गाते, नाचते और मस्त हो जाते थे। शेख बदरुद्दीन तेरहवीं शताब्दी में भारत में था। वह इतना बुड्ढा हो गया था कि चल-फिर भी न सकता था। पर जब भगवत भजन होता तो वह अपने बिस्तर से उठकर नाचने लगता था---जब उससे कोई पूछता कि शेख इस कमजोरी की अवस्था में कैसे नाचता है तो वह जवाब देता–--शेख़ कहाँ, प्रेम नाच रहा है।
अब हम इस्लाम और मोहम्मद साहब के सम्बन्ध में कुछ निष्पक्ष विद्वान् ग्रन्थकारों के कथन उद्धृत करते हैं---
मिस्टर ऐलफ़िन्सटन् साहब 'हिस्ट्री आफ़ इण्डिया' नामक पुस्तक में लिखते हैं:---
"जिस समय अरब वालों की ऐसी व्यवस्था थी। उसमें झूठे नबी (मोहम्मद) का जन्म हुआ। मोहम्मद के सिद्धान्त को मनुष्य जाति की एक भारी संख्या बहुत दिनों से धारण किए हुए है। मोहम्मद के उद्योग और सिद्धान्तों का वास्तविक रूप कुछ भी क्यों न हो, इसमें सन्देह नहीं कि जिस कठोरता, पक्षपात और रक्तपात से मोहम्मद के सिद्धान्तों का प्रचार हुआ उससे यही साबित होता है कि इन सिद्धान्तों का कर्त्ता मनुष्य जाति का अति भयानक शत्रु था।"