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शरई, पवित्रता को भी उन्होंने अनावश्यक बतलाया। कुछ ऐसे सम्प्रदाय भी पैदा हुए जिन्होंने कुर्आन के अलंकारिक अर्थ किये। अव्यक्त निर्गुण ब्रह्म और सगुण ईश्वर में भेद किया जाने लगा। इन सभी सम्प्रदायों में लोगों को खास 'दीक्षा' लेकर भरती किया जाता था। गुरु (पीर) को कहीं-कहीं ईश्वर का रुतवा दिया जाने लगा।

इसके बाद एक मौतजली सम्प्रदाय का जन्म हुआ जिसका सिद्धान्त था कि कुर्आन सदा के लिये निर्धान्त ईश्वर वाक्य नहीं---प्रत्युत् मनुष्य जाति और आत्मा की उन्नति के साथ-साथ समय-समय पर इलहाम होता रहता है। अलग़िज़ाली सम्प्रदाय ने कुर्आन-शरीयत, और सामान्व मुसलिम कर्म-असन्तुष्ट होकर एकान्तवासी हो तप (रियाज़त), अभ्यास (शग़ल) और ध्यान (जिक्र) शुरू किया और प्राचीन आर्यों के योगाभ्यास का अनुकरण किया। इस प्रकार सूफी सम्प्रदाय का जन्म हुआ। धीरे-धीरे सूफियों के अनेक मठ (खानकाहें) स्थापित हुए जिनमें अद्वत (बहद तुलवजूद) का उपदेश दिया जाता था; संयम (नफ्स कुशी), भक्ति (इश्क), योग (शग़ल) को मुक्ति (निजात) का मार्ग बताया जाता था। धीरे-धीरे ऐसे कवि और वैज्ञानिक भी अरब के अन्दर पैदा होने लगे जो नवी, कुर्आन, बहिश्त, रोजे-नमाज सबका मज़ाक उड़ाने लगे। साकार ईश्वर को अस्वीकार करने लगे। खलीफ़ा यजीद को जिसकी मृत्यु सन् ७४४ में हुई ऐसे ही विचार वालों में गिना जाता था।

अवुल-अला-अलम आका जो ग्यारहवीं शताब्दी में अरब के एक महान् विद्वान् और महात्मा थे, आवागमन में विश्वास रखते थे। अत्यन्त निरा- मिषाहारी थे। दूध, शहद और चमड़े का भी व्यवहार नहीं करते थे प्राणिमात्र पर दया का उपदेश करते और ब्रह्मचर्य को आत्मा के लिये जरूरी बताते थे। मसज़िद, नमाज, रोजे और दिखावट के कड़े विरोधी थे। वे वेदान्तियों की भाँति संसार को माया मानते थे।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस्लाम में गम्भीर परिवर्तन का कारण अरब की विचार स्वतन्त्रता तथा ईसाईमत, ज़रदुस्त मत, और भारतीय हिन्दू तथा बौद्ध मतों की छाप साफ़ दिखाई देती है। विरक्ति (अलफ़िरारो-