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खिलाफत का अंत

मि० नौल्डेथी के शब्दों में ख़लीफ़ा लोग---उनके इमाम, धमगुरु, अमीर, काडी कुमार और मजिस्ट्रेट थे। इस प्रकार मुस्लिम सत्ता में शुरू ही से प्रादेशिक और धार्मिक अधिकार संयुक्त हो गये थे। और इसलिये इस्लाम 'धर्म' होने के साथ एक राष्ट्र भी हो गया है।

आठ जून सन् ६२५ में हज़रत की मृत्यु हुई। तब से सन् ६६१ तक चार ख़लीफ़ा हुए। अबूबकर, उमर, उस्मान और अली। पाठकों ने देखा होगा कि ख़िलाफत का यह अल्पकाल मुस्लिम इतिहास में कितना महत्वपूर्ण हुआ। इन दिनों धर्म की महत्ता थी, और ख़लीफ़ा ग़रीबी से निर्लोभ भाव से विरक्त पुरुष की भाँति रहते थे। अब सन् ६६१ से १२५८ तक ख़िलाफत के इतिहास का दूसरा काल आता है। इसी समय मुसलमानों में शिया-सुन्नी का भेद हुआ। इन दिनों तक अरबियों का दौरदौरा था और उन्होंने ख़िलाफ़त को वंशगत प्रादेशिक राज्य का रूप दे दिया था। ख़लीफ़ा चुनने की प्रथा बन्द हो गई थी और पिछले ख़लीफ़ा के पुत्रादि उत्तराधिकारी माने जाते थे। सबसे प्रथम मोआविया ने अपने सामने ही अपने पुत्र को नामज़द किया था। इसके बाद ख़लीफ़ाओं का जीवन ही बदल गया। अब तो उनमें न उमर की सी सादगी ही रह गई थी और न अली को सी साधुता। मुसलमानों में भेद हो गये थे। विदेशों में जो मुसलमान बनाये जाते थे उन्हें वे

विशेषाधिकार नहीं प्राप्त होते थे जो अरबों को प्राप्त थे। शिया और सुन्नी दोनों सम्प्रदाय परस्पर शत्रु थे। खास कर जबसे हुसैन की मृत्यु का बदला

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