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उसकी लाश तीन दिन तक वैसे ही पड़ी रही और जब सड़ने लगी तब बिना नहलाए और नए कपड़े पहिनाए वैसे ही गाड़ दी गई।

इसके बाद अली इब्ने-अबूतालिब ख़लीफ़ा हुआ। यह व्यक्ति दयालू, न्याय प्रिय और शान्त था। परन्तु ख़लीफ़ा पद के लिए कठोर स्वभाव पुरुष की आवश्यकता थी, इसलिए अली के ख़लीफ़ा होते ही भीतरी विद्रोह फूट पड़ा। मुहम्मद साहब की प्यारी विधवा आयशा इसकी शत्रु थी। उधर तलहा, जवीर और मुआबिया भी ख़िलाफ़त के उम्मीदवार थे। इन लोगों ने प्रसिद्ध कर दिया कि उस्मान के वध में अली का षड्यन्त्र था। इससे लोग भड़क गये। मुआविया ने दमिश्क की मस्जिद में उस्मान का खून में रँगा हुआ कुरता बाँस पर लटका कर खड़ा कर दिया, जिसे देखते ही सीरिया के लोग आपे से बाहर होगए। मुआबिया ने छः हज़ार सेना देखते-देखते एकत्र करली। उधर अली का दल भी काफी था। आयशा ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि मैं खुदा और रसूल के नाम पर तलहा और जबीर के साथ बसरा जाती हूँ। जो मुसलमान मेरा साथ देना चाहें और उस्मान के खून का बदला लेना चाहें, वे मेरे पास चले आवें। मैं खाना, कपड़ा, घोड़ा और हथियार दूँगी। उसके साथ हज़ारों आदमी हो गए। पर जब वह बसरे पहुँची तो वहाँ के हाकिम उस्मान ने फाटक न खोला और उल्टे मुकाबिले को तैयार होगया, खूब गाली-गलौज हुई। अन्त में कौशल से यह लोग शहर में घुस गए और उस्मान को कैद कर लिया। बसरा पर आयशा का अधिकार हो गया। अली ने नौ सौ आदमी साथ लेकर बसरे पर चढ़ाई कर दी। मार्ग में तीस हज़ार सेना उसे और मिल गई। युद्ध हुआ, आयशा के साथी मारे गए और वह क़ैद हुई। पर अली ने उसे आदर-पूर्वक चालीस दासियों सहित मदीने भिजवा दिया।

अब अली का एक मात्र शत्रु---मुआबिया बच गया था। उसने उस्मान के खून में रँगा हुआ कुर्ता बाँस में लटका कर दमिश्क को मस्जिद में खड़ा किया, और अस्सी हजार सेना लिये साम की सीमा पर आ डटा। अली ने नव्वे हज़ार सेना लेकर उस पर धावा बोल दिया। युद्ध हुआ और पैंतालीस हज़ार आदमी मुआबिया के तथा तीस हज़ार आदमी ख़लीफ़ा के मारे गए। अन्त में सन्धि चर्चा चली। फलतः परस्पर दोनों दल गाली-गलोज करने