३४१ - भी जाता है, तो सूबेदार के पक्षपाती असल बात को छिपाकर कुछ और- का-और ही मामला बादशाह को सुना देते हैं । तात्पर्य यह कि सूबेदारों को उनके प्रान्तों का सम्पूर्ण रूप से मालिक और स्वत्वाधिकारी समझना चाहिये। वे आप ही जज (विचारक), आप ही पार्लियामेंट और आप ही प्रेसिडेंशल कर्डी (मुख्य विचारालय) हैं । आप ही अपराध का निर्णय करने- वाले और आप ही राज्य-कर के वसूल करनेवाले होते हैं। एक ईरानी ने इन अत्याचारी, लोभी सरदारों, और तहसीलदारों के विषय में क्या ही अच्छा कहा है कि-'यह बालू में से तेल निकालते हैं।' पर सच तो यह है कि इनकी स्त्रियां, बच्चों, सेवकों और लुटेरे साथियों के खर्च के लिये भी आमदनी काफ़ी नहीं होती। शिक्षा के विषय में वह लिखता है:- "सारे देश में शिक्षा का बिलकुल अभाव है । लोग अपढ़ और मूर्ख हैं, और यह वहां सम्भव ही वहीं है, कि ऐसे शिक्षालय और कालेज खुल -जिनके खर्च के लिए, यथेष्ट-धन राजकोष में मौजूद हो। यहां ऐसे लोग कहां-जो आर्थिक सहायता देकर कालेज खुलवावें । मानलिया जाय, कि ऐसे लोग मिल भी जायँ-तो पढ़ानेवाले कहां? लोगों में इतनी शक्ति कहाँ, कि अपने-अपने बच्चों को कालेज में भेजकर उनके खर्चे का प्रबंध कर सके ? यदि इस योग्य धनवान् लोग हैं भी, तो यह साहस कौन कर सकता है, कि इस प्रकार खुले-आम अपनी समृद्धता प्रकट कर सकें ?" सकें मेह
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