३३३ बौद्धों के अन्तिम दिनों में, जब बौद्धों के ऊपर शैवों के अत्याचार मुसलमान होते थे-तब बौद्धों को मुसलमानों से बहुत सहायता मिली थी। तत्कालीन बङ्गला-बौद्ध-ग्रन्थों में ब्राह्मणों के प्रति तिरस्कार और मुसल- मानों के प्रति सम्मान के भाव से भरे पड़े हैं। महाराष्ट्र की तत्कालीन समाज-पद्धति पर प्रसिद्ध महाराष्ट्र-विद्वान् महादेव गोविन्द रानाडे इस भाँति प्रकाश डालते हैं- "इस्लाम का कठोर एकैश्वरवाद कबीर, नानक-आदि साधुओं के चित्तों में घर कर गया। हिन्दू-त्रिमूर्ति-दत्तात्रेय के उपासक उनकी मूर्ति को मुसलमान फक़ीर के-से कपड़े पहनाते थे। यही प्रभाव महाराष्ट्र की जनता के चित्तों पर और भी अधिक ज़ोरों से काम कर रहा था। वहाँ पर ब्राह्मण और अब्राह्मण दोनों के प्रचारक लोगों को उपदेश दे रहे थे कि राम और रहीम को एक समझो, कर्मकाण्ड और जाति-भेद के बन्धनौ को तोड़ दो, ईश्वर में विश्वास और सनुप्य-मात्र के साथ प्रेम से मिलकर सब अपना एक धर्म बनाओ। इस प्रकार के उपदेश देने वाला महाराष्ट्र में पहला साधु-नामदेव हुआ। नामदेव का गुरु खेचर था। उसका कहना था-"पत्थर का देवता कभी नहीं बोलता तो वह हमारे ऐहिक दुःखों को कैसे दूर कर सकता है ? पत्थर की मूर्ति को लोग ईश्वर समझ बैठते हैं। किन्तु सच्चा ईश्वर बिल- कुल दूसरा ही है । यदि पत्थर का देवता हमारी इच्छा-पूर्ति कर सकता है- तो गिरने पर वह टूटता क्यों ? जो लोग पत्थर के देवता की पूजा करते हैं, वे अपनी मूर्खता से सब कुछ खो बैठते हैं।" नामदेव के शिष्यों में मुसलमान, अहीर, कुरमी, स्त्री-पुरुष, ब्राह्मण, मराठा, दरजी, कुम्हार, भंगी, चमार, ढेढ़ और वेश्याएँ तक थीं। वाहिराम भट्ट, दो दफ़े हिन्दू से मुसलमान और मुसलमान से हिन्दू हुआ उसने कहा-“न मैं हिन्दू हूँ, और न मैं मुमलमान । शख मुहम्मद के अनुयायी मक्का और मण्डरपुर के मन्दिर दोनों की यात्रा करते, रोजे और एकादशी-व्रत रखते थे। सन्त तुकाराम भी ऐसे ही साधु थे। उन सन्तों के नवीन विचारों से जो बौद्ध और मुसलमानो के सम्मिश्रण से पैदा हुए थे-मराठी साहित्य उत्पन्न हुआ। जाति-बन्धन
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