३३१ - "दादू का शरीर उसकी मस्जिद है। जमात के पञ्च उसके मन के अन्दर हैं। यहीं पर उनका मुल्ला इमाम है। अलक ईश्वर को सामने खड़ी करके वहीं पर वह सिजदा करता है, और सलाम करता है।" मलूकदास भी १६ वीं शताब्दी के अन्त में हुए, और १०८ वर्ष की आयु में मरे । नेपाल और काबुल तक में उन्होंने मठ स्थापित किये । इनका मत भी उपर्युक्त सन्तों के समान था -जो, हिन्दू-मुस्लिम दोनों की कट्टरता का विरोधी था। इनका कहना है- माला कहाँ औ कहाँ तसबीह, अपचेत इनहि कर, टेक न टेकें। काफ़िर कौन मलेच्छ कहावत, सन्ध्या-निमाज़ समय करि पेखें। म है जमराज कहाँ जमरील है, काज़ी है आप हिसाब के लेखें। पाप और पुण्य जमाकर बूझता, देत हिसाब कहाँ धरि दास मलूक कहा भरमों तुम, राम-रहीम कहावत एकै॥ सत्तनामी सम्प्रदायों के गुरु वीरभानु दादू के समकालीन थे, और उनका मत भी वैसा ही है। इन सभी सम्प्रदायों और साधुओं का जन्म हिन्दू-मुस्लिम एकता के संघर्ष से हुआ, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं। ऊपर जिन सन्तों का ज़िक हम कर चुके हैं-उनके सिवा बाबालाल, प्राणनाथ, धरनीदास, जगजीवन- दास, कुल्लासाहेब, केशव, चरनदास, सहजो, दयाबाई, ग़रीबदास, शिव- नारायण, रामचरण आदि के उपदेश भी इसी भाँति के हैं। स्वामी नारायण के मजहब को मुगल-बादशाह मुहम्मदशाह ने स्वी- कार किया था। बादशाह का दस्तखती परवाना अभी तक इस सम्प्रदाय के मुख्य मठ (बलिया, ज़िले ) में मौजूद है। अठारहवीं सदी के अन्त में
पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/३४०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।