: ६ :
ख़लीफ़ा उस्मान और अली
उमर की मृत्यु के बाद छ: आदमियों की कमेटी ख़लीफ़ा चुनने को बैठी। अली से पूछा गया कि तुम क़ुरान व हदीस को क़ानून मान कर अबूबकर और उमर के मार्ग पर चलोगे? उसने कहा---मैं क़ुरान व हदीस को तो स्वीकार करूँगा, पर अबूबकर और उमर की पाबन्दी नहीं। मैं अपनी बुद्धि से काम लूगा। इस पर कमेटी ने उस्मान से पूछा। उस्मान ने स्वीकार किया।
इसलिए उस्मान इब्ने-अफ़ान ख़लीफ़ा हुए। इनकी उम्र सत्तर वर्ष की थी। गद्दी पर बैठते ही इन्होंने यज्दगुर्द को क़त्ल करने को फौज़ ईरान भेजी। क्योंकि उमर मरती बार कह गये थे कि उसका नामोनिशान दुनिया से मिटा देना। बेचारा बादशाह इधर-उधर मारा-मारा और छिपता फिरता रहा। उसके साथियों ने उसे पकड़वा देने की सलाह की, पर उसे मालूम होगया और वह अपनी पगड़ी के सहारे मर्व के क़िले से उतर कर अँधेरी रात में भागा। रास्ते में एक नदी थी, उसे पार उतारने के लिये मल्लाह ने ४) रु० माँगे, पर उसके पास रुपये न थे। उसने लाखों रुपये मूल्य की क़ीमती अंगूठी देनी चाही, पर मल्लाह ने न ली। इतने में मुसलमान पहुँच गए और उसे टुकड़े-टुकड़े कर डाला। इस प्रकार चार हजार वर्ष से चमकता हुआ पारसियों का सितारा अस्त हो गया।
उस्मान ने अमर इब्ने-यास को मिस्र से बुला कर उसकी जगह अब्दुल्ला इब्ने-साद को दे दो। अब्दुला सैनिक था प्रबन्धक नहीं। इससे लोग नाराज़