३२६ सम्राट अकबर ने दीनेइलाही, अथवा सार्वजनिक धर्म की नींव रखी। उसने सहस्त्रों वर्ष की पुरानी प्रथा को, जिसके अनुसार प्रत्येक विजेता युद्ध-कैदियों को गुलाम बना लेता था, बन्द कर दिया, अनिच्छित वैधव्य, बाल-विवाह, सती-प्रथा को रोकने की भारी चेष्टा की। पर उसने इस काम के लिये तलवार न उठाई। वह बे-अन्दाज धन दान करता और तीर्थ यात्राएँ करता था। उसने हिन्दू-मुस्लिम विवाहों की मर्यादा डाली। अकबर के बाद जहाँगीर और शाहजहाँ ने भी इस मार्ग पर पद बढ़ाया, और शाहजहाँ का काल मुग़ल-साम्राज्य का उन्नतकाल था । इन सम्राटों के जीवन-काल में बहुत-से सेसे साधु-सन्त हुए-जिन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता को धार्मिक रूप दिया। इनमें एक कबीर थे। सुना जाता है, वे किसी विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे, और एक मुसलमान जुलाहे ने उन्हें पाला था। ये रामानन्द स्वामी के शिष्य थे। उन्होंने बनारस में अपना सतसंग शुरू किया, और हज़ारों शिष्य पैदा किये; जो, नीच-ऊँच, हिन्दू-मुसलमान दोनों थे। वे जन्म-भर जुलाहे का काम करते रहे। कबीर जात-पाँत के विरोधी, वेदों-शास्त्रों और कुरान सभी को गौण माननेवाले-सूफ़ी साधु के समान भक्ति के संत थे। उन्होंने अपनी रमैनी (साखी) के ज़रिये हिन्दू-मुसलमान दोनों को समान धर्मोप- देश दिया, और निर्भय ही दोनों मतों की रूढ़ियों का खण्डन किया, तथा प्राणिमात्र में प्रेम, भक्ति, और एक-ईश्वर की भक्ति का उपदेश दिया। कबीर का मत इस पद्य में सुनिये- हिन्दु कहूं तो मैं नहीं, मुसलमान भी नाहि । पाँच तत्ब का पूतला, गैबी खेले माँहि ॥ कबीर के विचारों की छाप अकबर पर क़ाफ़ी पड़ी थी, और अकबर के दीने-इलाही मत चलाने की मित्ति कबीर के ही सिद्धान्त हैं। कबीर के भी विचार उनके शिष्यों-द्वारा उत्तर से दक्षिण तक फैल गये । यहाँ स्मरण रखने योग्य बात है कि १५ वीं शताब्दी में समस्त पंजाब के नगर और ग्राम मुसलमान सूफ़ियों और फ़कीरों से भरे थे पानीपत, सरहिन्द, पाकपट्टन, मुलतान ओर कच्छ में प्रसिद्ध सूफ़ी शेखों - -
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