३२७ ज, ये अक्षर लिखने में बड़ी कठिनाई पड़ती है। अलबेखनी ने एक जगह लिखा है-"हमने हिन्दुओं के किसी शब्द का शुद्ध उच्चारण निर्धारित करने के लिये अनेक बार बड़ी सावधानी से लिखा-पुरन्तु जब उनके सन्मुख फिर उन्हें पढ़ा, तो वे उसे बड़ी मुश्किल-से पहचान सके।" पाठक देखें, कि १८ ध्वनियों का अभाव जिसमें है, उस लिपि में कैसे संस्कृत-जैसी भाषा के शब्द लिखे जा सकते थे। जबकि आजकल भी, जब अरवी-लिपि को भारत में आये ८०० वर्ष होगये हैं...क्षत्रिय की 'कश्तरिय' और क्षेम को 'कशेम' तथा सुश्रुत को–'सुकश्रुत लिखा जाता है। साधारण लेख भी बहुधा भ्रान्तिपूर्ण लिखे जाते हैं। एक चिट्टी में लिखा गया-"सेठजी अजमेर गये, बड़ी वही को भेज दो।" लिखा गया- “सेठजी आज मर गये, बड़ी बहू को भेज देना।" लिखा गया-“छुरी मारी थी।" पढ़ा गया-"छड़ी मारी थी।" लिखा गया-" -“साहब आते हैं, दो किश्ती तैयार रखना।" पढ़ा गया-“साहब आते हैं, तो कस्बी (वेश्या) तैयार रखना।"-इत्यादि प्रसिद्ध बातें हैं, और दस्तावेजों-आदि . की बेईमानी तो सब जानते हैं। मुग़लों ही के ज़माने में तुलसी और सूर ने, भूषण और गंग ने बिहारी और मतिराम ने अमर हिन्दी की रचनाएं की थीं। वैष्णव लेखकों ने इसी काल में बंग साहित्य में अमर ग्रन्थ लिखे। बंगाल के प्रसिद्ध लेखक दिनेशचन्द्र सेन लिखते हैं- "बंगला-भाषा को साहित्य के पद तक पहुँचाने में कई प्रभावों ने काम किया है। इसमें निस्सन्देह सब से अधिक महत्वपूर्ण प्रभाव मुसल- मानों का बंगाल-विजय है । यदि हिन्दू-राजा स्वाधीन बने रहते, तो बंगला- भाषा राजदरबारों तक शायद ही पहुँचती।" बंगाल के नवाबों ने रामा- यण व महाभारत का संस्कृत से बंगला से अनुवाद कराया था। बंगाल के नवाब नसीरशाह ने १४ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में बँगला में महाभारत का अनुवाद कराया था । मैथिल कवि विद्यापति ने गयासुद्दीन और नसीर- शाह की इस काम के लिये बहुत प्रशंसा की है। इसी बादशाह ने मलधर वसु को बहुत-सा रुपया देकर और गुनराजखाँ खिताब देकर भागवत का बँगला में अनुवाद करवाया था। राजा कंस के उत्तराधिकारी मुसलमान -
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