1 भीन ३२३ मानों की प्रारम्भिक स्थापत्य-कला पर पड़ा है। साफ़-सादी दीवारें, ऊँची मीनारें, बड़े-बड़े गुम्बद, बड़े-बड़े चौक उसी का प्रभाव है। उनका एक- श्वरवाद और मूर्ति-विरोध भी उनके इस निर्माण में सहायक हुआ है। परन्तु विज्ञ पाठक देखेंगे, कि भारत में मुसलमानों के बसते ही दोनों आदर्श मिल गये, और इस कला में एक तीसरी नवीनता, जो बहुत सुन्दर थी-पैदा होगई। आगरे का ताज इसी मिश्रित सौन्दर्य का फल है, जिस पर भारत को अभिमान है, और संसार-भर के यात्री जिसे देखकर आश्चर्य चकित होते हैं । खोज करने से पता चलता है कि १३ वीं शताब्दी के प्रथम की भारतीय शिल्प-संस्कृति पृथक-पृथक थी। परन्तु इसके बाद दोनों में ऐसा मेल होगया कि वह एक नवीन ही वस्तु बन गई, और मिश्र, श्याम, ईरान, तुर्किस्तान-आदि की शिल्प संस्कृति उनके मुकाबले में कुछ रह गई। सोलहवीं सदी के बने हुए मथुरा और वृन्दावन के कुछ मन्दिर, सोनागिरी के जैन-मन्दिर, विजयनगर की इमारतें और सत्रहवीं शताब्दी का बना हुआ मदुरा का तिरुमलाई नायक का प्रसिद्ध महल भी इसी मिश्रित शिल्प का प्रसाद है । सोलहवीं शताब्दी के लगभग राजपूतों ने छतरियाँ या समाधियाँ बनाने की परिपाटी चलाई, जो वास्तव में मुसल- मानों से सीखी गई थी। इमारतों में महराव का उपयोग, गोल डाट की छतें मुस्लिम शिल्प-संस्कृति हैं। मुग़लों ने बाग़ लगाने की कला में भी विस्तार किया। काश्मीर का शालामार बाग़ मुग़ल-उद्यान-अभिरुचि का एक ज्वलन्त नमूना है। चित्रकला में मुग़ल-बादशाहों ने भारी उन्नति की । सभी मुग़ल-बाद- शाहों ने हिन्दू, ईरानी, चीनी चित्रकार बड़ी-बड़ी तनख्वाहों पर रखे, और उन्होंने एक-दूसरे की सहायता से अपनी कला को बहुत ही उन्नत किया। मुग़ल-काल की फ़ारसी लिपियों में जयपुर, ग्वालियर, गुजरात, काश्मीर- आदि देशों के अनेक चित्रकारों के चित्र हैं। उस समय दिल्ली और आगरे से उन्नत होकर चित्र-कला जयपुर, चम्बू, चम्बा, काँगड़ा, लाहौर, अमृत- सर और दक्षिण में तञ्चौर तक फैलती दिखाई देती थी। प्रो० जदुनाथ सरकार का कहना है कि भारत में मुग़ल-काल में चित्र-कला की जो
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