३२० स्तानी इत्यादि के ग्रन्थों से भी उपयुक्त बातों का समर्थन होता है। यह परिस्थिति थी, जब हिन्दू-धर्म में अधिक विचारशील पुरुष पैदा हुए । शङ्कर, रामानुज, निम्बादित्य, बल्लभाचार्य आदि सन्तों ने दक्षिण-भारत में जन्म लिया, और हिन्दू-धर्म के संशोधित रूप का सन्देश जनता को सुनाना प्रारम्भ कर दिया। यह बात खास तौर पर ध्यान देने योग्य है, कि आरम्भ से ईसा की ८ वीं शताब्दी तक समस्त धार्मिक और सामाजिक सुधार उत्तर- भारत में ही आरम्भ हुए। पर आठवीं शताब्दी के बाद यह स्थान दक्षिण को मिला, और यह बात १५ शताब्दी तक कायम रही। रामानुज, शङ्कर, निम्बादित्य आदि सभी दक्षिणवासी थे। इन सभी विद्वानों ने प्राचीन भारतीय शास्त्रों ही के आधार पर जनता की ज्ञान-पिपासा शान्त की, और उन्हें सन्मार्ग पर लाने की चेष्टा की। शंकर को ही ले लीजिये। उन्होंने अनेक सम्प्रदायों को अपने सिद्धान्तवाद के भीतर ले लिया, और सब की संगठित शक्ति को बौद्धों के विरुद्ध खड़ा कर दिया। इनकी भित्ति दार्शनिक थी और इसी कारण इन्होंने बौद्धों पर विजय प्राप्त की। तब बौद्धों को दार्शनिक ग्रन्थ रचने पड़े। उन्होंने सब वर्गों के लोकों को संन्यास-दीक्षा का अधिकारी घोषित किया। उन्होंने साफ़ कहा-“सच्चा तत्वदर्शी मेरा गुरु है-भले ही वह चाण्डाल हो।" वैण्णवों और शैव-आचार्यों ने शंकर की प्रखर प्रतिभा, तीव्र प्रवचन-शैली, और प्रकाण्ड दार्शनिक-जान ने सब के छक्के छुड़ा दिये। रामानुज के भक्ति-मार्ग को दक्षिण से उत्तर भारत में लाने का श्रेय रामानन्द स्वामी को है । रामानन्द ने विष्णु का स्थान राम को दिया, और प्रत्येक जाति के लोगों को अपने सम्प्रदाय में सम्मिलित किया । तुलसीदास और कबीर उनके शिष्य थे। तुलसीदास ने राम का नाम घर-घर अमिट कर दिया। अलबेरूनी लिखता है कि शैव और वैष्णव-सम्प्रदायों के सिवा शनि, सूर्य, चन्द्र, ब्रह्मा, इन्द्र, अग्नि, स्कंध, गणेश, यम, कुबेर-आदि की मूर्तियाँ भी भारत में पूजी जाती हैं। बौद्ध और जैनों ने मांस और मद्य का प्रचार बिल्कुल बन्द कर दिया है । परन्तु कापालियों और शाक्तों ने इब चीजों को धर्म का प्रधान अङ्ग बना दिया है। 1
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