३१५ तं देव निर्मित देश ब्रह्मवर्त प्रचक्षते । गायन्ति देवाः किल गीत कानि । धन्यास्तु ते भारत भूमि भागे। स्वर्गापि वर्गास्पद मार्ग भूते । भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् । जामीय नैतत कृ वयं विलीने । स्वर्ग प्रदे कर्मणि देह बन्धम् । प्राप्स्याम् धन्याः खलु ते मनुष्या। ये भारते नेन्द्रिय विप्र हीनाः । जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसो। इन तीर्थ-यात्राओं से भौगोलिक ज्ञान बढ़ता था। तीर्थ-दर्शनों से भिन्न-भिन्न स्थानों की कला-कुशलता का ज्ञान प्राप्त होता था। सत्संग से ज्ञान-वृद्धि होती थी। केदारनाथ जाते हुए हिमालय के स्वर्गीय पुष्पों का आनन्द आता था। जगन्नाथ जी पहुँचने पर समुद्र की तरंगों का स्वाद मिलता था । प्रयाग में गंगा-यमुना का संगम दृष्टिगोचर होता था। भारत का एक भी सौन्दर्य-पूर्ण स्थान ऐसा नहीं बचा, जहाँ कोई तीर्थ या देव- मन्दिर न हो । भारत का नैसर्गिक सौन्दर्य भोग-विलास के लिये नहीं, मन और आत्मा को उच्च बनाने के लिये है। यदि निआगरा जल-प्रपात कहीं भारत के अन्तर्गत होता, तो वहाँ फैशनेबल हवाखोरी की जगह धार्मिक यात्री दिखाई देते, पार्कों की जगह आश्रम और होटलों की जगह देव- मन्दिर दिखाई देते। महाभारत में दी हुई तीर्थ-सूची देश भर के अनेक प्रसिद्ध नगरों की सूची है। पौराणिक काल में जो अभिप्राय तीर्थों से सिद्ध होता था- बौद्ध-काल में वही अभिप्राय चैत्य, स्तूप और विहारों से सिद्ध हुआ। पौरा- णिक प्राचीन मन्दिरों की तरह यह स्थान भी तत्कालीन शिल्प-निर्माण-कला ES
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