पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/३१८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३०६ जीवन को अक्षुण्ण बनाये रक्खा है ? हिन्दुओं के मुकाबिले की और कौन- सी जाति है ? हाँ, हम यह कह सकते हैं कि भारत में एक क्षण के लिये भी मुसल- मानों का शासन हिमालय से लेकर कन्या राजकुमारी तक और अटक से लेकर कटक तक अबाध नहीं रहा । सिर्फ डेढ़ शताब्दी तक मुसलमानों का शासन इतना रहा कि कुछ हिन्दू-राजा उसे कर देते और अपना प्रतिनिधि भेजते रहे । बस, मुसलमानी साम्राज्य का सर्वाधिक वैभव यहीं पर समाप्त हो जाता है, पर इस डेढ़ शताब्दी की समाप्ति के पूर्व ही हिन्दुओं ने फिर अपनी विजय प्रारम्भ कर दी थी। दक्षिण-पूर्व से राजपूत, पश्चिोत्तर से सिख, और दक्षिण से मरहठे दिल्ली के मुग़ल तख्त को ध्वंस करने को बढ़े चले आ रहे थे। इस काल में दक्षिण के ब्राह्मणों की राजनीति-सत्ता और शूद्रों की सैनिक-योग्यता का मिश्रण एक अपूर्व घटना थी। इस समय सिर्फ़ अंगरेजी शक्ति ने ही बीच में पड़कर मुसलमानों के साम्राज्य को हिन्दू हाथों में जाने से रोका। अलबत्ता दो-चार ऐसे अवसर थे, जो हिन्दुओं ने खो दिये; और यदि वे न खो दिये होते, तो आज दिल्ली में हिन्दू-साम्राज्य होता। एक अवसर यह था, राणा साँगा ने अपने प्रबल-प्रताप से बारम्बार दिल्ली के बादशाहों को फ़तह किया था। उनकी शक्ति जर्जर थी-और बाबर इधर- उधर भटक रहा था। राणा साँगा के वंशधर उस समय अनायास ही भारत के चक्रवर्ती सम्राट् हो सकते थे। दूसरा अवसर वह था, जब पृथ्वीराज के पतन के बाद मुहम्मद गोरी लौट गया था। तब यदि चाहते, तो जय- चन्द के वंशधर दिल्ली को धर दबा सकते थे। तीसरा अवसर वह था- जब प्रताप के पास, कावुल-विजय कर, मानसिंह मिलने गये थे। अकबर से उनका भीतरी-द्वष चल रहा था। मुग़ल-सैन्य उनके हाथ में थी। मन में न जाने क्या भाव आये थे। यदि प्रताप घमण्ड न करके मानसिंह को छाती से लगा लेते, तो अकबर ही मुस्लिम-साम्राज्य का अन्तिम बादशाह होता; और दुर्बल, ऐयाश और शराबी जहाँगीर को वह गद्दी नसीब न हो- कर सीसोदियों को मिलती। चौथा वह अवसर था, जब मरहठों ने दिल्ली ~ -