२८६ था । यह सुनकर चारों ओर से पुनिया, दीनापुर, बाँकुड़ा, वर्द्धमान आदि से हज़ारों नर-नारी कलकत्त को चल दिये । गृहस्थों की कुल-कामिनियों ने प्राणाधिक बच्चों को कन्धे पर चढ़ाकर विकट-यात्रा में पैर धरा। जिन कुल-वधुओं को कभी घर की देहली उलाँघने का अवसर नहीं आया था, वे भिखारिन के वेश में कलकत्त की तरफ़ जा रही थीं। बहुमूल्य आभूषण और अफ़ियाँ उनके अंचल में बँधे थे, और वे उनके बदले एक मुट्ठी अन्न चाहती थीं। पर इनमें कितनी कलकत्ते पहुँचीं? सैकड़ों स्त्री-पुरुष मार्ग में ही भूखे- प्यासे मर गये, कितनों के बच्चे माता का सूखा स्तन चूसते-चूसते अन्त में माता की छाती पर ही ठण्डे होगये। कितनी कुल-वधुओं ने भूख प्यास से उन्मत्त हो, आत्मघात किया। बाबू चण्डीचरण सेन ने उस भीषण घटना का इस प्रकार वर्णन किया है- "घोर दुर्भिक्ष समुपस्थित है । सूखे नर-कङ्कालों से मार्ग भरे पड़े हैं। ......"सहस्रों नर-नारी मर-मरकर मार्ग में गिर रहे हैं । भगवती गङ्गा अपने तीव्र-प्रवाह में भूखे मुर्दो को गङ्गासागर की ओर बहाये लिए जा रही हैं। अपने अधमरे बच्चों को छाती से लगाये, सैकड़ों स्त्रियाँ अधमरी अवस्था में गंगा के किनारे सिसक रही हैं । पापी प्राण नहीं निकले हैं। कभी-कभी डोम अन्य मुर्दो के साथ उन्हें भी टाँग पकड़कर गंगा में फेंक रहे हैं । जहाँ- तहाँ आदमियों का समूह हिताहित शून्य हो, वृक्षों के पत्तों को खा रहा है । गङ्गा-किनारे वृक्षों में पत्त नहीं रहे हैं।' "कलकत्ता नगर के भीतर एक रमणी—एक मुट्ठी नाज के लिये अपनी गोद के प्यारे बच्चे को बेचने के लिये इधर-उधर घूम रही है।" उक्त बाबू साहब एक स्थान पर इन अभागे बंगालियों को सम्बोधन करके लिखते हैं- "हे बङ्गदेश के नरनारीगण ! तुम झूठी आशा के ही सहारे व्यर्थ कलकत्त जा रहे हो ! कलकत्त में जो चावल रक्खे हैं, वे तुम्हारे भाग्य में नहीं बदे । तुम्हारे जीने-मरने में किसी को कुछ लाभ नहीं । वह अन्न तो उनके सैनिकों के लिये है । तुम्हारी अपेक्षा उनके सैनिक कहीं भूखे मर गये तो मानवीय स्वतन्त्रता के मूल पर कुठाराघात कौन करेगा ?"
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