२८५ हो गया। पटना और मुंगेर का भी पतन हुआ। क़ासिम भाग कर अवध के नवाब शुजाउद्दौला की शरण गया । एक बार अवध के नवाब की सहा- यता से पटना और बक्सर में फिर युद्ध हुआ। परन्तु विश्वासघात और घूस की घोर ज्वाला ने मुसलमानी तख्त का विध्वंस किया। इस पर प्रयाग तक मीरक़ासिम खदेड़ा गया। फल यह हुआ कि प्रयाग भी अंगरेज़ों के हाथ आगया। मीरक़ासिम का क्या हाल हुआ? कुछ पक्की खबर नहीं। लोग कहते थे कि दिल्ली की सड़क पर एक एक लाश देखी गई थी-जो एक बहुमूल्य शाल से ढकी हुई थी। उसके एक कोने पर लिखा था -मीर- क़ासिम । मीरजाफ़र फिर नवाब बन गया। अंगरेज़ों ने क़ासिम की लड़ाई का सब खर्चा और हर्जाना मीरजाफ़र से वसूल किया। सबको भेंट भी यथा-योग्य दी गई । बंगभूमि के भाग्य फूट गये। उसके माथे का सिन्दूर पोंछ लिया गया। मराठों ने प्रथम ही बंगाल को छिन्न-भिन्न कर दिया था। अब इस राज-विप्लव के पश्चात् मानो बंगाल का कोई कर्ता-धर्ता ही न रहा। मीर- जाफ़र फिर गद्दी से उतारकर कलकत्त भेज दिया गया। इस बार किसी को नवाब बनाने को जरूरत न रही। ईस्ट इण्डिया कम्पनी बहादुर ही बंगाल की मालिक बन गई। सन् १७३८ के दिन थे। देश-भर अराजक, अरक्षित और दलित था। किसान घर-बार छोड़, जहाँ-तहाँ भाग गये थे। नगर उजाड़ होरहे थे। वर्षा भी न हुई थी। खेती बहुत कम बोई गई थी। बीज तक लोगों के पास न था। ऐसी दशा में भयङ्कर दुर्भिक्ष बंगाल की छाती पर सवार हुआ। परन्तु तिस पर भी कौड़ी-कौड़ी मालगुजारी वसूल की गई। उस समय भी कुछ लोग धनी थे। जगतसेठ, मानिकचन्द नष्ट हो चुके थे-पर कुछ धनी बच रहे थे। पर, क्या किसान, क्या धनी-अन्न बँगाल में किसी के पास न था। अफ़ियाँ थीं-मगर कोई अन्न बेचने वाला न था। अंगरेजों ने बहुत-सा चावल कलकत्त में सेना के लिये भर रखा.
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