पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/२८३

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२७४ 1 भारत में जमाई, और अन्त में आत्मघात करके मरा तथा इंगलैण्ड में जिसकी मूर्ति वीर जनरल वेलिंगटन के बराबर न लग सकी। अमीचन्द को धोखा देकर ही ये लोग शान्त न रहे । बल्कि वे उसे कलकत्त में लाकर अपनी मुट्ठी में लाने की जुगत करने लगे। यह काम स्क्वायल के सुपुर्द हुआ। उसने अमीचन्द से कहा- "बातचीत तो समाप्त होगई । अब दो-ही चार दिन में लड़ाई छिड़ जायगी । हम तो घोड़े पर चढ़कर उड़न्तू होंगे, तुम बूढ़े हो- क्या करोगे ! क्या घोड़े पर भाग सकोगे?" दवा कारगर हुई। मूर्ख बनिया घबराकर नवाब से आज्ञा ले, मुर्शिदाबाद भागा। अब मीरजाफ़र से सन्धि पर हस्ताक्षर होने बाकी थे। पर गुप्तचर चारों ओर छुटे थे, वाट्सन साहब बहादुर पर्देदार पालकी में घूघटवाली स्त्रियों का वेश धर प्रतिष्ठित मुसलमान घराने की स्त्रियों की तरह सीधे मीरजाफ़र के जनानखाने में पहुँचे, और मीरजाफ़र ने कुरान सिर पर रख, तथा पुत्र मीरन पर हाथ धर, सन्धि-पत्र पर दस्तखत कर दिये । इस पर भी अंगरेज़ों को विश्वास न हुआ, तो उन्होंने जगतसेठ और अमीचन्द को ज़ामिन बनाया। पाठक, एक बात ध्यान में रखिये कि अन्तिम समय मीरजाफ़र के हाथ कोढ़ से गल गये थे, और उसके पुत्र मीरन पर अकस्मात् बिजली गिरी थी। इधर सिराज को इस सन्धि का पता चला । वाट्सन साहब सावधान हो घोड़े पर चढ़ हवाखोरी के बहाने भाग गये। नवाब ने अंगरेजों को अन्तिम पत्र लिख कर अन्त में लिखा-“ईश्वर को धन्यवाद है-मेरे द्वारा सन्धि भंग नहीं हुई।...... १२ जून को अंगरेज़ों की फ़ौज चली। जिसमें ६५० गोरे, १५० पैदल गोलन्दाज, २१ नाविक, २१०० देशी सिपाही थे। थोड़े पुर्तगीज भी थे। सब मिलाकर कुल ३००० आदमी थे । गोला-बारूद आदि लेकर २०० नावों पर गोरे चले । काले सिपाही पैदल की गंगा के किनारे-किनारे चले। रास्ते में हुगली, काटोपा, अग्रद्वीप, पलासी की छावनियों में नवाब की काफ़ी फौज पड़ी थो। पर हाय ! बनिये अंगरेज़ों ने सबको खरीद लिया था। -