1 २५७ उन्होंने कलकत्त के पास थोड़ी-सी जमींदारी खरीद ली। कुछ दिन कलकत्ते के गवर्नर भी रहे। पर शीघ्र-ही विलायत के अधिकारियों से लड़ने-भिड़ने के कारण अलग कर दिये गये, और जिस मीरजाफर ने इतना रुपया दिया था, उसे झूठा कलंक लगाकर राज्य-च्युत किया। अन्त में इंगलैण्ड जाकर मर गये। अस्तु, कलकत्त का शासन-भार राजा मानिकचन्द को दे, नवाब ने कलकत्त से चलकर हुगली में पड़ाव डाला। डच और फ्रान्सीसी सौदागर गले में दुपट्टा डाले आधीनता स्वीकार करने के लिए सम्मानपूर्वक नज़र- भेंट लाये। डचों ने ४॥ लाख और फ्रेंचों ने ४॥ लाख रुपया नवाब को भेंट किया। नवाब ने दो अंगरेज़ वाट्स और क्लेट को बुलाकर यह समझा दिया कि-"मैं तुम लोगों को देश से बाहर निकालना नहीं चाहता, तुम खुशी से कलकत्त में रहकर व्यापार करो।" नवाब तो राजधानी को लौट गये । अंगरेज़ कलकत्त में वापिस आये और अमीचन्द की उदारता की बदौलता उन्होंने अन्न-जल पाया। इस यात्रा से लौटकर ११ जुलाई को नवाब ने राजधानी में गाजे- बाजे से प्रवेश किया । तोपों की सलामी दगी । नाच-रंग होने लगे। नवाब रत्नजटित पालकी पर अमीर-उमरावों के साथ नगर में होकर जब गाजे- बाजे से मोती-झील को जा रहा था, उस समय रास्ते में, कारागार में स्थित हॉलवेल साहब पर उसकी नजर पड़ी। उसने तत्काल सब बाजे बन्द करवा दिये, और पालकी से उतर, पैदल कारागार के द्वार पर जाकर चोबदार को हॉलवेल की हथकड़ी-बेड़ी खुलवाने का हुक्म दिया। हॉलवेल साहब और उसके तीन साथियों को यथेच्छ स्थान में जाने को मुक्त कर दिया। हॉलवेल साहब ने स्वयं यह बात लिखी है। धीरे-धीरे अंगरेज़ फिर कलकत्त में आकर वाणिज्य करने लगे। पर शीघ्र ही एक दुर्घटना हो गई । एक अंगरेज़ सर्जन ने एक निरपराध मुसलमान की हत्या कर डाली। बस, राजा मानिकचन्द की आज्ञा से सब अंगरेज़ कलकत्ते से बाहर कर दिये गये । अंगरेज़ लोग निरुपाय होकर पालता- बन्दर पर इकठ्ठ होने लगे। इस अस्वास्थ्यकर स्थान में अंगरेज़ों की बड़ी दुर्दशा हुई । प्रचण्ड गर्मी, तिस पर निराश्रय, और खाद्य-पदार्थों का अभाव ! 1 -
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