पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/२६३

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, २५४ कुछ हानि उठाये भाग जाने की इच्छा,-यह ऐसे नीच काम थे, जो पराजय के अन्तिम समय में किये गये, और जो शायद अंगरेजों में कभी नहीं हुए।" क़िले की भीतरी दशा अजीब थी। सब-कोई दूसरों को सिखाने में लगे थे। पर स्वयं किसी की बात को कोई नहीं मानना चाहता था। बाहर तो नवाबी सेना उन्मत्तों की भाँति कूद-फाँद और शोर मचा रही थी, भीतर फिरङ्गियों का आर्तनाद, सिपाहियों की परस्पर की कलह और सेनापतियों के मति-भ्रम इत्यादि से किले में शासन-शक्ति का सर्वथा लोप हो गया था। बड़ी कठिनता से रात को दो बजे सामरिक सभा जुड़ी। इसमें छोटे- बड़े सभी थे । बहीखाता समेटकर भाग जाना ही निश्चय हुआ। प्रातःकाल जो भागने को एक गुप्त दरवाजा खोला गया, तो बहुत-से आदमियों ने उता- वली से भागकर, किनारे पर आकर कोलाहल मचा दिया, और नावों पर बैठने में छीना-झपटी करने लगे। परिणाम बुरा हुआ-नवाबी सेना ने सावधान होकर तीर बरसाने शुरू किये। कितनी ही नावें उलट गईं। किसी तरह कुछ लोग जहाज तक पहुँचे । उस पर गोले बरसाये गये। फिर भी गवर्नर ड्रक, सेनापति मनचन, कप्तान ग्राण्ट आदि बड़े-बड़े आदमी इस तरह से भाग गये। अब कलकत्त के ज़मींदार हॉलवेल साहब ही मुखिया रह गये । वे क्या करते ? अंगरेज़ समझते थे कि महामति ड्रक घबराकर मति-भ्रम होने के कारण भाग गये हैं। शायद, वे विचार कर, सहकारियों को सज्जित करके अपने साथियों की रक्षा के लिये फिर आयें। पर आशा व्यर्थ हुई । ड्रक साहब न आये । क़िलेवालों ने लौटने के बहुत संकेत किये-बराबर निवेदन किये। गवर्नर साहब न आये । एक अँगरेज़ ने लिखा है- "केवल एक नायक और पन्द्रह वीर पुरुषों की संरक्षकता ही से दुर्गवासियों की दुर्दशा का अन्त हो सकता था। परन्तु शोक ! भागे हुए अँगरेजों में ऐसे - - पन्द्रह वीर न थे।" अब हारकर हॉलवेल साहब अपने पुराने सहायक अमीचन्द णी शरण में गये, जो उन्हीं के कैदखाने में बन्दी पड़ा था। अमीचन्द ने उस समय उनकी कुछ भी लानत-मलामत न कर, उनके कातर-क्रन्दन से