पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/२५४

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१९ सिराजुद्दौला यह भाग्यहीन युवक नवाब २४ वर्ष की आयु में अपने नाना की गद्दी पर सन् १७५६ में बैठा। इस समय मुग़ल-साम्राज्य की नींव हिल चुकी थी, और अंगरेजों के हौसले बढ़ रहे थे। उन्हें दिल्ली के बादशाह ने बंगाल में बिना चुगी महसूल दिये व्यापार करने के पास दे दिये थे। इन पासों का खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग किया जाता था, और वे किसी भी हिन्दुस्तानी व्यापारी को बेच दिये जाते थे; जिससे राज्य की बड़ी भारी हानि होती थी। मरते वक्त अलीवर्दीखाँ ने पुत्र को यह हिदायत दी थी......"योरो- पियन क़ौमों की ताक़त पर नज़र रखना। यदि खुदा मेरी उम्र बढ़ा देता, तो मैं तुम्हें इस डर से बचा देता। अब मेरे बेटे ! यह काम तुम्हें खुद करना होगा। तिलंगों के साथ उनकी लड़ाइयाँ और राजनीति पर नजर रखो-और सावधान रहो। अपने-अपने बादशाहों के घरेलू झगड़ों के बहाने इन लोगों ने मुग़ल बादशाह का मुल्क और उनकी प्रजा का धन छीनकर आपस में बाँट लिया है। इन तीनों कौमों को एक-साथ जेर करने का खयाल न करना; अंगरेजों को ही पहले जेर करना । जब तुम ऐसा कर लोगे, तो बाक़ी क़ौमें तुम्हें ज्यादा तकलीफ़ न देंगी।..."उन्हें किले बनाने या फ़ौज रखने की इजाजत न देना । यदि तुमने यह ग़लती की, तो मुल्क तुम्हारे हाथ से निकल जायगा।" सिराजुद्दौला पर, मालूम होता है, इस नसीहत का भरपूर प्रभाव पड़ा था, और वह अंगरेज़ी शक्ति की ओर से चौकन्ना था। उसके तख्त- २४५ -