२३५ इस जमाने में कम्पनी की आर्थिक स्थिति बहुत ही नाजुक थी। उसकी हुण्डियों की दर बाजार में बारह फ़ीसदी बट्ट पर निकलती थी। इन दिनों मेजर बेली रेजीडेण्ट थे, जिनके बुरे व्यवहार से नवाब तंग आगये थे। नवाब ने गवर्नर से इनको शिकायतें कीं। गवर्नर लखनऊ आये, पर नतीजा उल्टा हुआ। इस सम्बन्ध में स्वयं तत्कालीन गवर्नर लार्ड हेस्टिग्स ने लिखा है:- "नवाब मेजर बेली के उद्धत प्रभुत्व के नीचे हर घण्टे आहें भरता था। उसे आशा थी कि मैं उसे इस अन्याय से छुटकारा दिला दूंगा। किन्तु मैंने मेजर बेली का प्रभुत्व और भी पक्का कर दिया । मेजर बेली छोटी-से-छोटी बातों पर नवाब पर हुकूमत चलाता था। जब कभी मेजर बेली को नवाब से कुछ कहना होता था, वह चाहे-जब बिना सूचना दिये महल में जा-धमकता था। उसने अपने आदमियों को बड़ी-बड़ी तनख्वाहों पर नवाब के यहाँ लगा रक्खा था, जो जासूसी का काम करते थे। मेजर बेली जिस हाकिमाना शान के साथ हमेशा नवाब से बात करता था, उसके कारण उसने नवाब को उसके कुटुम्बियों और प्रजा की नजरों में गिरा दिया था।" इस यात्रा में गवर्नर ने नवाब से ढाई करोड़ रुपये नक़द नेपाल- युद्ध के खर्च के लिये वसूल किये थे। इसके बदले नैपाल से मिली भूमि का टुकड़ा नवाब को दिया गया था, जो वास्तव में लगभग बंजर था। इसके बाद नवाब को एक दर्बार करके 'स्वतन्त्र-बादशाह' का पद दिया गया। इसमें भी एक राजनैतिक छल था। क्योंकि इस चाल से दिल्ली के साम्राज्य को भंग किया गया था। बादशाह बन कर न नवाब के अधिकार बढ़े थे, न स्वतन्त्रता-यह केवल एक हास्यास्पद प्रहसन था । आपके बाद आपके ज्येष्ठ पुत्र गाजी नसीरुद्दीन हैदर गद्दी पर बैठे। इन्होंने अपना नाम अबुलबसर कुतुबुद्दीन सुलेमान जाह नसीरुद्दीन हैदर- बादशाह, रक्खा । ये पचीस वर्ष के युवक थे। इन्होंने गद्दी पर बैठते ही पिता के वजीर को बर्खास्त करके एक पीलवान को वजीर बनाया और एतमुद्दौला का खिताब दिया। पर ये शीघ्र ही मर गये । तब नवाब मुत्त- जिमुद्दौला हकीम ऐहदीअली खाँ वजीर हुए। इन्होंने एक अस्पताल और --
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