लिखा था ..........." २३३ मिल गया। एक शर्त यह भी थी कि सिवा कम्पनी के आदमियों के अन्य कोई भी यूरोपियन अवध-राज्य में न रहने पाये। इस सन्धि के सम्बन्ध में 'कलकत्ता रिव्यू' में सर हेनरी लारेन्स ने 'शायद सर जॉन शोर की सन्धि से अंग्रेज-पाठकों को सब से अधिक यह बात खटके, कि अवध के शासन-प्रबन्ध का इसमें कहीं जरा भी जिक्र नहीं है। मालूम होता है कि अवध की प्रजा सब से बढ़कर बोली बोलनेवाले के हाथ नीलाम कर दी गई।......"सर जॉन शोर ने अवध की मसनद को केवल एक अंग्रेज-गवर्नर के हाथों की एक बिक्री की चीज़ बना दी थी।" इसके बाद गवर्नर होकर लार्ड वेलेजली आये, तो उन्होंने दो वर्ष बाद ही यह सन्धि तोड़ दी। उसने नवाब को अपनी सेना में कुछ संशोधन करने की भी अनुमति दी। उस संशोधन का अभिप्राय यह था कि माल- गुजारी की वसूली आदि के लिये जितनी सेना दरकार हो, उसे छोड़कर शेष सब सेना तोड़ दी जाय, और उसके स्थान पर कम्पनी के प्रबन्ध और नवाब के नाम से कुछ ऐसी सेनाएँ रक्खी जायें-जिनका खर्चा ७५ लाख रुपये सालाना हो। नवाब ने इसके उत्तर में एक तर्क-पूर्ण और कड़ा उत्तर लिखा, और अंग्रेज-सरकार को इस प्रकार हस्तक्षेप करने के लिये मीठी फटकार दी। इस पत्र को लॉर्ड वेलेजली ने तिरस्कार-पूर्वक वापिस कर दिया और नवाब को लिख दिया, कि कुछ पेन्शन सालाना लेकर सल्तनत से हट जाओ, या जो पल्टनें नई आ रही हैं, उनके खर्च के लिए आधा राज्य कम्पनी के हवाले करो। ये पल्टनें भेज दी गई, और रेजीडेण्ट को लिख दिया गया, कि यदि नवाब चीं-चपड़ करे, तो सेना-द्वारा राज्य पर कब्ज़ा कर लो। वेलेजली ने यह भी स्पष्ट लिख दिया कि नवाब की सैनिक-शक्ति खत्म करदी जाय, और अवध की सारी सल्तनत के दीवानी और फौजदारी अधिकार कम्पनी के हो जायें। नवाब ने बहुत चिल्ल-पों मचाई, पर नतीजा कुछ न हुआ, और नवाब को अपनी सल्तनत का आधा भाग, जिसकी आय एक करोड़ पैंतीस
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