२२८ - नवाब ने अपने सुप्रबन्ध और चतुराई से थोड़े-ही दिनों में सूबे की आमदनी सात लाख रुपया करली। और अट्ठाईस वर्षों तक बड़ी सफलता से शासन किया। मृत्यु के समय खजाने में नौ करोड़ रुपये जमा थे । यह सन् ११५० हिजरी की बात है। इनकी मृत्यु पर इनके भांजे और दामाद मिरज़ा मुहम्मद मुक़ीम अबुल मन्सूरखाँ सफ़दर जंग के नाम से वजीरे-नबाब नियुक्त हुए। यह अपनी राजधानी लखनऊ से उठाकर फ़ैज़ाबाद ले गये । यहाँ नवाब की सेना की छावनी थी। यह बुद्धिमान् न थे, इसलिये इनका जीवन युद्ध और झगड़ों में गया। इनके समय में शेख फिर सिर उठाने लगे। अन्य सरदार भी बागी हो गये। इनमें एक गुण था-एक-नारी-व्रती थे। इनकी पत्नी नवाब सदर- जहाँ बेगम युद्ध-स्थल में भी छाया की भाँति साथ रहती थीं। ये सोलह वर्ष नवाबी भोगकर मरे । इनके बाद मिरज़ा जलालुद्दीन हैदर नवाब शुजाउद्दौला के नाम से मसनद पर बैठे। ये २४ वर्ष की आयु के वीर युवक थे, पर चरित्र ठीक न था । गद्दी पर बैठते ही किसी हिन्दू स्त्री का अपमान करने के कारण हिन्दू बिगड़ गये। परन्तु इनकी माता ने बहुत-कुछ समझा-बुझाकर हिन्दू-रईसों को शान्त किया। इन्होंने बाईस वर्ष तक नवाबी की। इनके जमाने में दिल्ली की गद्दी पर बादशाह शाहआलम थे, और बंगाल की सूबेदारी के लिये मीरक़ासिम जी-जान से परिश्रम कर रहा था । शुजाउद्दौला, बादशाह के वजीर और रक्षक थे। मीरक़ासिम ने उनसे सहायता मांगी थी। उस समय अङ्गरेजी कम्पनी के अधिकारियों ने मीरजाफर को नवाब बनाया था। शुजाउद्दौला ने एक पत्र अंगरेज़ कौन्सल को लिखकर बादशाह के अधिकार और उनके कर्तव्यों की चेतावनी दी थी। पर उसका कोई फल न देख, युद्ध की तैयारी कर दी। युद्ध हुआ भी, परन्तु अंगरेजों की भेद नीति से शुजाउद्दौला की हार हुई, उसमें नवाब को हर्जाने के पचास लाख रुपये और इलाहाबाद तथा कड़े के जिले अंगरेजों को देने पड़े। अंगरेजों का एक एजेण्ट भी उनके यहाँ रक्खा गया, और दोनों ने परस्पर के शत्रु- मित्रों को अपना निजू शत्रु-मित्र समझने का क़ौल-क़रार भी कर लिया।
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