पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/२३६

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- २२७ डाली थी। उसका असली नाम मिरज़ा मुहम्मद अमीन था। उन दिनों दिल्ली के तख्त पर मुहम्मदशाह रँगीले मौज कर रहे थे। अवध में तब शेखों ने वड़ा ऊधम मचा रक्खा था। उनकी देखा-देखी दूसरे ज़मीदारभी सरकश हो उठे थे। जो कोई अवध का सूबेदार बनकर जाता, उसे ही मार डालते थे। इसलिये बादशाह किसी ज़बरदस्त आदमी की तलाश में थे। स्वयं बादशाह- सलामत भी इनसे सशंक रहते थे। वे इन्हें दरबार से हटाना चाहते थे, और अन्त में अवध की सूबेदारी देकर उन्होंने इन्हें दूर किया। बादशाह ने मिरज़ा साहब को अवध की सूबेदारी और खिलअत तो दे दी थी, पर फ़ौज का कोई भी बन्दोबस्त न था । मिरज़ा साहब ने हिम्मत न हारी-आवारा और बेकार मुसलमान-युवकों को बटोरकर संगठित किया और कहा-"क्यों पड़े-पड़े बेकार ज़िन्दगी बारबाद करते हो? खुदा ने चाहा, तो अवध पर दखल करके मजा करेंगे।" कुछ ही दिनों में हज़ारों आदमी जमा हो गये । कुछ तोपें और हथि- यार शाही शस्त्रागार से मिल गये। इस फ़ौज को अवध तक ले जाने और सामान के लिये बैल खरीदने को मिरज़ा ने अपनी बेगम के जेवर बेच डाले। जब मिरज़ा इस ठाठ से चले, तो रास्ते में आगरे के सूबेदार ने इनकी खातिरदारी करनी चाही। आपने कहा-"जो रुपया मेरी खातिर- तवाजे में खर्च करना चाहते हो, मुझे नक़द दे दो, क्योंकि रुपये की मुझे बड़ी ज़रूरत है।" आगरे के सूबेदार ने यही किया। वहाँ से बरेली पहुंचे तो वहाँ के सूबेदार से भी दावत के बदले रुपया लेकर फ़र्रुखाबाद आये । वहाँ नवाब ने कहा-"लखनऊ के शेख बड़े लड़ाके और अवध के आदमी भारी सरक़श हैं। आप एकाएक गंगा-पार न कर, पहले आस-पास ज़मी- दारों और रईसों को मिला लें, तब सबकी मदद लेकर लखनऊ पर चढ़ाई करें।" मिरज़ा ने यही किया और जब वे धूम-धाम से लखनऊ पहुँचे और शेखों को अपने आने की सूचना दी, तो वे इनकी सेना से डर गये, और कहा-"आप गोमती के उस-पार मच्छी-भवन में डेरा डालिये।" मच्छी-भवन अनायास ही दखल हुआ देखकर मिरज़ा बहुत खुश हुए; क्योंकि उन्हें आशा न थी कि विना रक्त-पात हुए सफलता मिल जायगी।