२२६ बहादुरशाह की एक बेटी रजिया बेग़म ने रोटियों से मुहताज होकर दिल्ली के एक बावर्ची हुसैनी से शादी करली थी। उनकी दूसरी बेटी फ़ातिमा सुलताना ने ईसाई-जनाना-स्कूल में नौकरी करली। बादशाह, बेगम जीनतमहल और शाहजादा जवाँबख्त क़द करके रंगून भेजे गये, जहाँ सन् १८६३ में इस वृद्ध बादशाह का देहान्त हुआ, और उसके साथ- साथ दिल्ली के प्रतापी मुग़ल-साम्राज्य का टिमटिमाता दीपक सदा के लिये बुझ गया !!
१६ तख्ते-लखनऊ दिल्ली इस्लाम की परम प्रतापी राजधानी अवश्य रही-परन्तु इस- लामी नजाकत, जो ऐयाशी और मद से उत्पन्न हुई थी-उसका जहूर तो लखनऊ ही में नजर आया। आज भी लखनऊ अपनी फ़साहत और नजा- कत के लिये मशहूर है । लखनऊ के नव्वाबों के एक-से-एक बढ़कर मजेदार और आश्चर्यजनक कारनामे सुनने को मिलते हैं । वह बाँकपन, वह अल्हड़- पन, वह रईसी बेवकूफ़ी दुनिया में सिर्फ लखनऊ ही के हिस्से में आई थी। आज भी वहाँ सैकड़ों नवाब जूते चटकाते फिरते हैं। यद्यपि अँग्रेज़ी दौर- दौरे ने लखनऊ को पूरा ईसाई बना दिया है, पर कुछ बुढ़ऊ खूसट अब भी गज-भर चौड़े पाँयचे का पायजामा और हल्की दुपल्ली टोपी पहनकर उसी पुराने ठाठ से निकलते हैं। ताजियेदारी के दिन मानों लखनऊ भूल जाता है कि अब हम प्रबल प्रतापी ब्रिटिश की जायदाद हैं-उस समय उसमें वही शाही छटा देखने को मिलती है। अगर खोज की जाय तो आज भी वहाँ नवाब कनकव्वे और नवाब बटेर देखने को मिल सकते हैं। खम्मीरी तम्बाकू की भीनी महक में डूबकर प्रत्येक पुराना मुसलमान अब भी अपने ऊपर इतराता है। लखनऊ की नवाबी की नींव नवाब सआदतखाँ बुर्दामुल-मुल्क ने