२१६ थे, वे निकाल दिये गये, और हिन्दुस्तानी रईसों को तम्बीह कर दी गई, कि वे अपनी मोहरों में बादशाह के प्रति ऐसे शब्दों का उपयोग न करें। इन सब बातों के बाद गवर्नमेण्ट ने अब फ़ैसला कर लिया है कि, दिखावे की अब कोई भी बात ऐसी न रखी जाय, जिससे हमारी गवर्नमेंट बादशाह के आधीन मालूम हो। इसलिये दिल्ली के बादशाह की उपोधि एक ऐसी उपाधि है, जिसे रहने देना गवर्नमेंट की इच्छा पर निर्भर है।" सन् १८३६ में बादशाह के पुत्र दाराबख्त की मृत्यु हुई । बादशाह उसके बाद बेगम ज़ीनतमहल के पुत्र शाहजादे जवांबख्त को युवराज नियत करना चाहते थे । परन्तु अँग्रेज-सरकार ने बादशाह के आठ पुत्रों में से मिरजा क़ीमास के साथ एक गुप्त सन्धि करके उसे युवराज स्वीकार कर लिया। उस सन्धि में तीन शर्ते थीं- १-वह बादशाह के स्थान पर 'शाहजादा' कहा जायेगा। २-दिल्ली का क़िला खाली करना पड़ेगा। ३–एक लाख मासिक के स्थान पर १५ हजार रुपये मासिक खर्च के लिये मिला करेगा। १० मई को सन् ५७ का विद्रोह मेरठ में फूट निकला, और उसी विद्रोही फ़ौजें दिल्ली को चल दीं। ये फ़ौज़ ११ मई को दिल्ली में आ पहुँची। दिल्ली के सिपाही उनसे मिल गये और अफ़सरों को मार डाला। संयुक्त-सेना काश्मीरी दरवाजे से नगर में घुसी। दरियागंज की तमाम अंग्रेज़ी बस्ती जला डाली गई, और बहुत से अंग्रेज़ काट डाले गये । दिल्ली के किले पर तुरन्त उनका क़ब्ज़ा होगया। इतने में मेरठ की पैदल फ़ौज़ और तोपखाना भी आ पहुँचा । उसने किले में घुसते-ही बादशाह को ११ तोपों की सलामी दी। बादशाह ने उनसे कहा-“मेरे पास कोई खज़ाना नहीं। मैं आप लोगों की तनख्वाह कहाँ से दूंगा?" सिपाहियों ने कहा-"हम लोग हिन्दुस्तान-भर के अंग्रेजी खजाने को लूटकर आप के क़दमों पर डाल देंगे।" अन्त में बादशाह ने विद्रोह का नेतृत्व ग्रहण किया। दिल्ली में प्रत्येक नागरिक ने विद्रोह का स्वागत किया। जो अंग्रेज़ जहाँ मिला, काट डाला गया । दिल्ली-निव।सी, विद्रोही सिपाहियों को ओलों और बताशों का - 1
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