२१८ अमीर की भाँति बादशाह को बाकायदा तस्लीम, कोनिस और मुजरा किया करता था और शाही खानदान के प्रत्येक बच्चे के प्रति प्रतिष्ठा प्रकट करता था। पर, अब उसके स्थान पर मेटकाफ़ नियुक्त होकर आया। उसने अपना व्यवहार बिलकुल बदल दिया, और बार-बार बादशाह का अपमान करना शुरू कर दिया। बादशाह ने अपने पुत्र मिरज़ा सलीम को युवराज-पद देना चाहा, परन्तु अंग्रेजों ने उसे इलाहाबाद किले में नज़रबन्द कर दिया। अन्त में बादशाह मरा, और उसका पुत्र बहादुरशाह पिता की भाग्यहीन गद्दी पर बैठा। यह वह समय था, जब भारत में भीतर-ही-भीतर अशान्ति के चिह्न उठ रहे थे। बादशाह की आर्थिक स्थित बहुत नाजुक थी। बादशाह ने अंग्रेजों को खर्च की रक़म अधिक देने को लिखा, पर उसे जवाब दिया गया- "आप अपने और अपने वंशजों के समस्त अधिकार कम्पनी को सौंप दें, तो यह रक़म बढ़ सकती है।" बादशाह ने इसे नामंजूर किया। अब तक भी यह रस्म बनी थी कि ईद के दिन या नौरोज़ या बाद- शाह की साल-गिरह पर गवर्नर जनरल और कमाण्डर-इन-चीफ़, दोनों, शाही दरबार में हाजिर होकर या रेजीडेण्ट-द्वारा, नजरें पेश करते थे। बहादुरशाह के तख्त पर बैठने तक भी यह रस्म की गई थी। परन्तु इसके कुछ ही वर्ष बाद लॉर्ड एलेनब्रक ने इस नजर को भी बन्द कर दिया । इस अवसर पर गवर्नर-जनरल लार्ड एलेनब्र क ने रेजीडेण्ट टामस मेटक़ाफ को लिया था- "बादशाह की ऊपरी शानो-शौक़त का शृगार उतर चुका है। उसके वैभव की पहली-सी चमक-दमक नहीं रही । बादशाह के वे अधिकार, जिन पर तैमूर के खानदानवालों को घमण्ड था, एक दूसरे के बाद छिन चुके हैं । इसलिये बहादुरशाह के मरने के बाद कलम के एक डोबे में 'बादशाह' की उपाधि का अन्त कर देना कुछ भी कठिन नहीं है। बादशाह की नजर जो गवर्नर-जनरल और कमाण्डर-इन चीफ़ देते थे, बन्द हुई । कम्पनी का सिक्का जो बादशाह के नाम से ढाला जाता था, बन्द कर दिया गया। गवर्नर- जनरल की मुहर में जो पहले 'बादशाह का फ़िदवी-खास'-ये शब्द रहते 1
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