१८८ सिवाय उस दशा के, जबकि कोई खास कारण हो । किन्तु उस समय भी वह पर्दे में ढकी हुई, पालकियों में सवार होती हैं, जिनमें छोटी-छोटी खिड़- कियों में सोने की जालियाँ होती हैं, और जिनके भीतर से वे देख सकती हैं। अभिप्राय यह है कि कोई आदमी इन महिलाओं के निकट नहीं पहुँच सकता, सिवाय इनके पतियों के, या उन हक़ीमों के, जो इनकी नाड़ी देखते हैं। अमीर-उमरा घोड़े से उतरकर कोनिश बजा लाते हैं। इनमें जिन व्यक्तियों से वे ज्यादा प्रीति करती हैं, उन्हें निकट आने की आज्ञा देती हैं, और अन्तिम सलाम के तौर पर अपनी सवारी से ही ख्वाजासरा के हाथ पान भेज देती हैं, जिसे लेकर अमीर एक और कोनिश बजाकर चल देते हैं। यह प्रतिष्ठा कई अवसरों पर मुझे भी प्राप्त हुई है। एक बार बाद- शाह-बेगम यानी शाह आलम की माता ने मुझे अपनी प्रसन्नता और शाह- जादे के साथ रहने के कारण दरबार में जाने के समय मेरी सेवाओं के प्रति ऐसा ही किया था। वह बेगम मेरे साथ बहुत प्रेम करती थी; क्योंकि मैंने कई बार इनका इलाज किया था, और इनकी फ़स्द खोली थी। रोगी रहने के कारण बहुधा इन्हें मेरी सेवाओं की आवश्यकता रहती थी, और चूं कि मैं ही इसके लिये नुस्खा तजवीज़ किया करता था, इसलिये वह कोई- न-कोई उम्दा चीज बहुधा मुझे भेज दिया करती थी, जैसा कि ऐसी महि- लाओं का, उन लोगों के साथ, जिनकी वे प्रतिष्ठा करती हों-करने का दस्तूर है। जब मुझे इनकी फ़स्द खोलनी पड़ती थी, तब वह अपने पैर को परदे से बाहर निकाल देती थीं, जो रंगों के निकट एक-दो अंगुल चौड़ी जगह के सिवाय सब-का-सब ढका होता था। उस इलाज के लिये मुझे ४००) और सरोपा मिलता था। बाकायदा साल में दो दफ़ा इनकी फ़स्द खोलनी पड़ती थी। यह भी स्मरण रखना चाहिये कि प्रथम इसके कि कोई फिरंगी इन शाहजादों के यहाँ हकीम बन सके, उसे मुद्दत तक अपनी योग्यता-आदि का प्रमाण देना पड़ता था; क्योंकि ये लोग इन मामलों में शक्की और नाजुक-तबियत के होते हैं। हर महीने और शाहजादियाँ, इसी तरह से, जैसा कि मैं ऊपर लिख चुका हूँ, फ़स्द खुलवाती हैं। यही विधि इस समय काम में लाई जाती है, जब उन्हें पाँव से खून निकलवाना हो-या, किसी ज़ख्म या फोड़े की मरहम-पट्टी आदि करानी हो । सिवाय .
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