१७१ - की वजह से मुमताज़ होता है, मगर यह बात करीन-इन्साफ़ नहीं कि मुझे काहिल और खामोश बैठे रहने का इल्जाम दिया जावे। क्योंकि बंगाल और दक्खिन में मेरी फ़ौजों की मसरूफ़ियत को तो हुजूर ख्याल में ला ही नहीं सकते। और मैं हुजूर को यह भी याद दिलाता हूँ कि बड़े-से-बड़ा मुल्कगीर भी हमेशा सब से बड़ा बादशाह नहीं हुआ। देखा जाता है कि कभी-कभी दुनिया के बादशाह अक्सर बिलकुल वहशी और नातरबियत- याफ्त होने पर भी बड़े आदिल हैं। थोड़े-से अर्से में वे बिलकुल टुकड़े-टुकड़े होगये हैं । बस, हक़ीक़त में सब से बड़ा बादशाह वही है, जो रिआया की मुहब्बत और अदल व इन्साफ़ को ही अहना हासिल अमर जाने ।” इस ज़माने में मुग़लों के महलों की क्या दशा थी, और बादशाह किस भाँति अपने व्यक्तिगत जीवन व्यतीत करते थे-उनका ऐश्वर्य कितना महान था-उसका वर्णन बीयर के निम्नलिखित उद्धरण से आपको मिलेगा- "बहुधा राजमहलों में भिन्न-भिन्न नस्लों और जातियों की दो हज़ार स्त्रियाँ रहती हैं जिनमें से प्रत्येक के कर्तव्य पृथक्-पृथक् होते हैं। किसी का काम तो बादशाह की सेवा होता है, और किसी का उसकी बेगमों, बेटियों और आशनाओं की सेवा । उस श्रेणी में व्यवस्था-प्रबन्ध स्थिर रखने के लिये उनमें से प्रत्येक को अलग-अलग कमरे मिले होते हैं, जिनकी ज़नाने पहरेदार निगरानी करते हैं। उसके सिवा उनमें से प्रत्येक को दस या बारह बाँदियाँ मिली होती हैं, जो उपरोक्त स्त्रियों में से दे दी जाती हैं। ज़नाने पहरेदारों को अपने दर्जे के अनुसार तीन-चार या पाँच सौ रुपये तक माह- वारी वेतन मिलता है, और इनकी आधीन दासियों को पचास रूपये से दो सौ रुपये तक । जनाने पहरे वालों के सिवा गानेवालियों को भी वेतन तो उसी प्रकार मिलता है, पर शाहज़ादे और शाहज़ादियों से, जिनके नाम पाठकों के मनोरंजन के लिये मैं आगे चलकर लिखूगा-बहुमूल्य तोहफे भी मिलते रहते हैं। इनमें से कई तो शाहज़ादियों को लिखना-पढ़ना सिखाती हैं, परन्तु बहुधा इन्हें आशिकाना ग़ज़लें सिखाती रहती हैं। इसके सिवा महल की खातून गुलिस्ताँ और बोस्ताँ नामक पुस्तकें, जो एक प्रसिद्ध लेखक शेखसादी द्वारा रचित हैं, और अन्य प्रेम-सम्बन्धी पुस्तकें पढ़ती रहती हैं,
पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/१८०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।